भाग्यनिर्माण में इच्छा-शक्ति (Part 6)

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(भाग 5 का बाकि)

इच्छा कैसे इच्छा शक्ति में बदलती है

उदाहरण –– मान लीजिए आपके हाथ में एक पिस्तौल है और सामने वृक्ष की शाखा पर एक परिंदा बैठा है। आप में इच्छा जागी कि इसका शिकार किया जाये। उस पक्षी पर अधिकार करने के लिए प्रथम तो इच्छा चाहिए जो आपने की, परन्तु इस इच्छा मात्र से ही डाल का परिन्दा आपकी गोद में नहीं आ गिरेगा। आप इच्छा करते जाईये, परन्तु पक्षी पर इसका कोई भी असर नहीं पड़ने वाला है। वह मजे से कलरव गान करता रहेगा। यह महज इच्छा है। 

पक्षी को पाने के लिए आपकी इच्छा, इच्छा-शक्ति में बदलनी चाहिए। इसके लिए आपको अपनी सारी ऊर्जा एक जगह केद्रित करनी होगी। आपके तन-मन की समस्त एकाग्रता की शक्ति आँखों में और पिस्तौल के घोड़े पर रखी अंगुली में समाहित हो जानी चाहिए। सही अर्थ में परिन्दे पर आप की समस्त ध्यान ऊर्जा एक जगह केद्रित करनी होगी। आपके तन-मन की समस्त एकाग्रता की शक्ति आँखों में और पिस्तौल के घोड़े पर रखी अंगुली में समाहित हो जानी चाहिए। अब सही अर्थ में परिन्दे पर आप की समस्त ध्यान ऊर्जा प्रवाहित हो रही है।

आप का निशाना सध चुका है। अगर अब आप चाहे तो इच्छा शक्ति द्वारा लक्ष्य-बेधने में सफल हो सकते हैं। अब आपका घोड़ा दबाना, गोली का छूटना और चिड़िया का शिकार होना सबकुछ सम्भव है। अगर आप अब भी चाहे तो इस अंतिम स्थिति से वापस लौट सकते हैं, परन्तु यदि गोली छूट गई तो उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता है। इस संकल्प-शक्ति की उपलब्धि को किसी भी आयाम में प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु विवेकवान पुरुष को इसे सदा सोच समझ कर प्रयोग करना चाहिए।

उदाहरण –– यदि आप क्रोधित होकर किसी का नुकसान करने के लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन अभी वे अप्रगट हैं तो वहाँ से लौटा जा सकता है। अभी आप के भाव गाली के रूप में गोली की तरह छूट नहीं गये हैं। उस दृढ़ संकल्प को दृढ़ता से साधारण संकल्प में वापिस लौटाया जा सकता है। मतलब आप समझ गये होंगे कि इच्छा-शक्ति का प्रयोग जीवन-जगत में कहाँ और कैसे करना है। यदि गोली छूट भी गई तो थोड़ा प्रयास अवश्य करना चाहिए जैसे माफी माँगना इत्यादि ताकि परिणाम का नुकसान कुछ कम हो सके। जब भी कोई व्यक्ति अपने समस्त प्रयत्न को दृढ़ता से अपने महान् उद्देश्य के प्रति समर्पित कर देता है तो उसे दृढ़ इच्छा-शक्ति वाला संकल्पवान पुरुष कहा जाता है। ऐसी इच्छा-शक्ति ही जीवन में सफलता हासिल करने के लिए वरदान साबित होती है। बिना इच्छा-शक्ति के मनुष्य की सभी सफलताएँ बिल में दबी रह जाती हैं। इसलिए नियोजित इच्छा ही संकल्प-शक्ति का रूप धारण करती है।

 

संकल्प वास्तव में सफलता की सीढ़ी है। जीवन में साधारण कार्य करने के लिए भी संकल्प करना होगा। संकल्प मानो सारे क्रिया कलाप की प्रेरणा है। यदि आपके आत्मज ने परीक्षा में उत्तीर्ण होने का संकल्प किया है तो उसकी पूर्ति के लिए उसे पूर्ण अध्यावसाय में जुट जाना होगा। उत्तम से उत्तम संकल्प की पूर्ति के लिए जीवन समर्पित करना होगा। जितनी तीव्र यह संकल्प की भावना होगी उतनी ही तेजी से शुभ संकल्प की पूर्ति होगी।

–– राजेद्र शर्मा

इच्छा और उद्देश्य का सिद्धान्त

जगत की लीला में प्रकृति और पुरुष के विराट अन्तर सम्बन्धों में जहाँ एक ओर नियति का सर्वतोष दर्शन होता है, वहीं दूसरी ओर विराट ब्रह्माण्डीय प्रकृति से सतत् प्रवाहित सूचना और समझ की ऊर्जा, नाटक का संचालन अद्भुत संयोजक के सिद्धान्त के तहत करता रहता है। कब, कहाँ, क्या और कैसे होता है? इस विराट अन्तर व्यवस्था का निर्धारण इतनी सहजता से किस निर्देश के तहत, किस जगह से संचालित होता है?

एक तो प्रकृति के अनन्त विस्तार में कण-कण में यह सूचना समाहित है। जिसे शुद्ध प्रकृति का अंत क्षेत्र कहा जाता है। वहीं दूसरी ओर मनुष्य में इस ऊर्जा को ग्रहण करने तथा इसे सम्प्रेषित करने की भी अद्भुत व्यवस्था और सामर्थ्य है। आइये इसको आगे विस्तार से जाने। इस तथ्य को आज विज्ञान ने भी स्वीकार कर लिया कि जगत पदार्थ नहीं, ऊर्जा है अर्थात् उसका स्वरूप सूक्ष्म और अदृश्य जैसा है।

अदृश्य ऊर्जा फिर पदार्थ में प्रगट पदार्थ नहीं, ऊर्जा है अर्थात् उसका स्वरूप सूक्ष्म और अदृश्य जैसा है। अदृश्य ऊर्जा फिर पदार्थ में प्रगट होता है इस प्रकार प्रगट और अप्रगट के आँख मिचौली का बना यह जगत एक सुन्दर खेल मात्र है। प्रकृति का यह ऊर्जामय रूप मुख्य रूप से सूचनात्मक गतिशीलता है। ऊर्जा का यह रूप सदा बदलता रहता है।

पदार्थ के दृष्टिकोण से हमारे और पेड़-पौधे और दूसरे जीवों में बहुत कुछ समानता है। कुछ क्रियाएँ तो बिल्कुल समान है। तत्वों के दृष्टिकोण से भी बहुत कुछ समानता है। अन्तर है तो मात्र इतना कि ऊर्जा के सूक्ष्म रूप, भाव, विचार, अनुभूति इत्यादि में हम उससे विशिष्ट है। क्योंकि मन-बुद्धि के साथ मस्तिष्कीय स्नायु तंत्र है जो समस्त प्रकार की ऊर्जा और जानकारियों जैसे विचारों, सूक्ष्म तरंगों के प्रति ग्रहणशीलता तथा संप्रेषण की क्षमता, स्मृति, चाहत इत्यादि के प्रति जागरुक करने में सक्षम है।

इसके माध्यम से आप सिर्फ शरीर के सूक्ष्म क्रियाकलापों को ही महसूस नहीं करते अपितु उनमें आवश्यक आदेश-निर्देश देकर उनमें अपनी इच्छानुसार परिवर्तन भी ला सकते हैं। हमारी यह अद्भुत क्षमता सूक्ष्म जगत के जानकारों को भी अपने आदेश द्वारा प्रभावित कर सकता है। और आपको मनोवांछित फल प्राप्त करा सकता है। यहीं से आपका मन प्रकृति के मन से सम्पर्क कर अपने उद्देश्य को पूर्ण करने में सहजता से सफलता हासिल कर सकता है। इसके लिए आवश्यक है योग और आपका आन्तरिक भाव, चाहत या उद्देश्य। शक्ति और शुद्धि के द्वारा पवित्र मनोबल प्राप्त करने का यही सर्वाधिक मौलिक मार्ग है।

राजयोग अर्थात् अपने को शरीर से अलग सत्ता आत्मा का अनुभव करना तथा आत्मा का पिता परमात्मा से मनोयोग द्वारा सम्बन्ध स्थापित कर शक्ति प्राप्त करना। क्योंकि योग एक ऐसे वायुमण्डल की धरती तैयार करता है, जहाँ आपका इच्छा रूपी बीज पड़ते ही फलीभूत हो जाता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन विराट प्रकृति में अद्भुत संयोजन का कार्य करता है।

यह सूचनात्मक ऊर्जा के विशाल क्षेत्र में आपके उद्देश्य के अनुसार बहुआयामी सामंजस्य और प्रबन्धन, बड़ी ही सरलता से कर आपके सामने उपस्थित कर देता है। जैसे शरीर में करोड़ो सेल बड़ी बुद्धिमत्ता से आपके सूक्ष्मभाव को समझ कर अद्भुत सामंजस्यपूर्ण तरीके से कार्य करता है। आपको पता हो कि एक-एक सेल एक सेकण्ड में 6 लाख बार क्रियाएँ करता है। इस प्रकार समायोजना का मतलब हुआ एक ही समय में अनेक घटनाओं का एक साथ कुशल प्रबन्धन।

यदि कोई व्यक्ति इस अद्भुत प्राकृतिक व्यवस्था या आध्यात्मिक सिद्धान्त का पालन करता है, तो निश्चय ही उसकी समस्त आकांक्षाओं की पूर्ति अपने आप होने लगती है। योग आपके अन्दर ऊर्जा को सक्रिय कर देता है, जबकि उद्देश्य उस ऊर्जा को दिशा निर्देश कर आकार देता है। अव्यक्त को व्यक्त में बिना प्रयास के सहज ही संघर्षमुक्त अभिव्यक्ति में उद्देश्य का ही हाथ है लेकिन तब जब उन सभी नियमों का हम ठीक-ठीक पालन करते हैं।

आज का मनुष्य द्वंद्वों में बँटा है, जो चारों तरफ से चुनाव के घेरे में घरा अनिर्णय और अशान्ति की स्थिति में जीवन व्यतीत कर रहा है। जहाँ जीवन सीमित और अनिश्चित है, साधन भी सीमित है, परन्तु इच्छाएँ असीमित है। माना की इच्छित फल की प्राप्ति से अल्प काल की ही सही, संतुष्टता और प्रसन्नता तो अवश्य मिल जाती है। परन्तु पुन पुन यही यक्ष प्रश्न सामने उठ खड़ा होता है कि कभी न समाप्त होने वाली तृष्णा और लालसा के फैले विशाल साम्राज्य को कोई कैसे जीते? और ऐसे में क्या कोई भी मनुष्य संतुष्टता और प्रसन्नता का जीवन जी सकता है?

 

जिस क्षण तुम इच्छा से ऊपर उठते हो उसी समय इच्छा की वस्तु तुम्हें खोजने लगती है।

–– स्वामी रामतीर्थ

हर नई वस्तु प्राप्त होने पर और नई वस्तुओं की प्राप्ति के लिए हमारे हृदय में जो अनिवार्य लालसा जागृत होती है, वह जोरदार शब्दों में सांसारिक आकांक्षाओं की तुच्छता हमारे सामने प्रगट करती है।

–– स्वामी रामतीर्थ

भोग, तृष्णा मनुष्य के सब दुःखों की जड़ है। शरीर के लिए आवश्यक वस्तुओं के उपभोग को तृष्णा नहीं कहते हैं। जब वस्तुओं की लालसा बढ़ जाती है वही तृष्णा है। यही मनुष्य में विषय-वासना उत्पन्न करती है जो सभी अनर्थों की जड़ है। मनुष्य के मन में जब तृष्णा उसे खा जाती है, उसका जीवन नष्ट हो जाता है।

–– आचार्य चतुरसेन

शेष भाग - 7

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।
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