(भाग 1 का बाकि)
भाग्य निर्माण में तीन महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ ––
1. विचार-शक्ति : जिससे मनुष्य के चरित्र का निर्माण होता है।
2. इच्छा-शक्ति : जो मनुष्य को मौका प्रदान करती है कि कैसे चीज़ों
को चुम्बक की तरह अपनी ओर आकर्षित करें या उसके प्रति आकर्षित हों।
3. एक्शन क्रिया-शक्ति : जो नज़दीकी वातावरण का निर्माण कराती है।
1. विचार-शक्ति
जीवन में सफलता और भाग्य के निर्माण में विचार-शक्ति का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। विचार
से ही मनुष्य के चरित्र का निर्माण होता है।
विचार का चिराग बुझ जाने से आचार अंधा हो जाता है।
–– विनोवाभावे
अच्छा या बुरा कुछ नहीं है, केवल विचार ही वस्तु को अच्छा या बुरा बनाते
हैं।
–– शेक्सपियर
दुष्ट विचार ही मनुष्य को दुष्ट कार्य की ओर ले जाते हैं।
–– उपनिषद
विचार-चरित्र निर्माण का अद्भुत स्थान : चरित्र निर्माण में विचार-शक्ति की अति महत्त्वपूर्ण भूमिका है। विचार अति सूक्ष्म क्रिया-शक्ति है। जैसे ही हम किसी वस्तु या व्यक्ति, गुण या अवगुण, शक्ति या कमज़ोरी इत्यादि के बारे में सोचना प्रारम्भ करते हैं, तक्षण विचार के जगत में एक तरंग फैलने लगती है। यह तरंग या कम्पन उसी विषय-वस्तु के अनुकूल होता है, जिसके बारे में हम सोचते हैं। किसी विशेष तरह के भाव या विचार के कम्पन प्रारम्भ हो जाने पर उसकी पुनरावृत्ति सहज ही होने लगती है।
थोड़े समय के बाद यह प्रकम्पन अपने
उन विचारों को पैदा करना प्रारम्भ कर देता है। आपके नहीं चाहने के बावजूद भी उन विचारों
का पुनरावर्तन प्रारम्भ हो जायेगा। इस तरह उन विचारों को करने की हमारी आदत बन जाती
है। फलस्वरूप उससे सम्बन्धित गुणों या अवगुणों का विकास हमारे अंदर प्रारम्भ हो जाता
है, जिसे हम चरित्र कहते हैं।
विचार जिससे होता है भाग्य-निर्माण-प्रकम्पन विज्ञान : चरित्र में गुण या दोष का निर्माण इन्हीं नियमों के तहत होता है। यदि आप किसी उस नैतिक या आध्यात्मिक गुणों का विकास करना चाहते हैं तो उस पर तीव्रता से बार-बार विचार करना प्रारम्भ कर दें। साथ ही व्यवहार में उस पर धैर्य से अमल करना शुरू कर दें। थोड़े ही दिनों में आप पायेंगे कि उन गुणों का विकास बड़ी ही तीव्रता से होने लगा है।
कोई भी प्रमादी या आलसी व्यक्ति, अपने अन्दर बिना इस विचार प्रक्रिया के, किसी भी गुण का विकास नहीं कर सकता। यदि उसे इन दुर्गुणों से मुक्ति पानी है तो वह इसी नियम के अनुसार सम्भव है। यही वह गुण है जो धीरे-धीरे अन्तर्मन की गहराई में प्रवेश कर स्थाई संस्कार का निर्माण करता है और व्यक्ति उसी के अनुरूप चरित्र वाला बन जाता है। यही चरित्र उसकी सफलता और असफलता या भाग्य और दुर्भाग्य निर्माण के कारक तत्व बन जाते हैं।
अनुकूल गुणों और शक्तियों के
लगातार चिन्तन से उत्पन्न प्रकम्पनों से उस व्यक्ति स्वभाव या प्रकृति का निर्माण होता
है, और यही सद्गुण उसके शान्ति और सुखद जीवन का आधार बन जाता
है। पूर्व जन्मों में संचित यही संस्कार इस जन्म में उसके स्वाभाविक चारित्रक गुणों
के रूप में प्रगट होता है। यही संस्कार कर्म का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जिससे भाग्य का निर्माण होता है।
2. इच्छा-शक्ति का भाग्य
निर्माण में चुम्बकीय प्रभाव
इच्छा-शक्ति अर्थात्
संकल्प-शक्ति। संकल्प-शक्ति हमारी सबसे
श्रेष्ठ मूल शक्ति है। सबसे तीव्र गति की भाषा संकल्प की भाषा है। जिससे कितना भी कोई
दूर हो, कोई साधन न हो, लेकिन संकल्प की
भाषा द्वारा किसी को भी संदेश दे सकते हैं। जिन आत्माओं को जिन स्थूल कार्यों को या
सम्बन्ध सम्पर्क में आने वाली आत्मा के संस्कारों को मुख द्वारा या अन्य साधनों द्वारा
परिवर्तन नहीं कर सकते, उसे इस शक्ति के माध्यम से कर सकते हैं।
किसी वस्तु के प्रति आकर्षण या प्रत्याकर्षण, कामना या इच्छा कहलाती है। जिस किसी वस्तु, व्यक्ति या भाव की इच्छा हम करते हैं तो, उसके और हमारे बीच एक चुम्बकीय सम्बन्ध प्रारम्भ हो जाता हैं। अति प्रबलता से उत्पन्न कामना उसकी ओर हमें आकर्षित कर लेती है या हम उसे अपने तरफ खींच लेते हैं। इसे ही इच्छा शक्ति कहते हैं।
यही इच्छा-शक्ति उस वस्तु को पाने के लिए उस आत्मा
को एकाग्र कर देती है और पाने के प्रयास के लिए प्रेरित करती है। इच्छित फल को प्राप्त
करने के मार्ग में चाहे कितनी ही कठिनाईयाँ क्यों न आयें। उसे वह पाकर ही रहती है या
वह वस्तु उसे मिल ही
जाती है। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में भी, लेकिन मिलेगी
निश्चित ही।
इस विराट विश्व में व्याप्त प्रकृति की और अनन्त रचनात्मक क्रियाशीलता के पीछे उसका सूक्ष्म मन ही है और जैसे ही प्रकृति के इस राज अर्थात् उसके मन की रचनाशीलता के सिद्धाँत के प्रति आपका बोध गहरा होने लगेगा, उतने ही आप उसकी सम्पदा को पाने में सहज ही सफल होते चले जायेंगे।
परन्तु प्रकृति के मन से आपका सम्पर्क स्थापित हो, इसके लिए सर्वप्रथम यह ज़रूरी है कि अपने मन में चल रहें अनर्गल प्रलाप को
बन्द करें। इसके उपरान्त ही आपके मन में दृढ़ता सम्पन्न रचनात्मक संकल्प-शक्ति पैदा होगा, जो सहज ही अनन्त दिशाओं में प्रकृति
के मन के साथ व्यक्ति के सृजनात्मक मन को प्रभावित कर इच्छित फल को आपके समक्ष प्रत्यक्ष
प्रगट कर देगी।
ब्रह्माण्डीय रचनाशीलता में दो (पोलर) ध्रुवीय ऊर्जा सदा सक्रिय रहती है। जिसे धन और ऋण कहते हैं। इसे ऊर्जा सर्किट कहते हैं। चुम्बक की तरह इन्हीं दो ध्रुवों के बीच ऊर्जा गतिशील रहती है। इस विराट प्रकृति की रचनाशीलता में सक्रिय विश्वव्यापी ऊर्जा में जहाँ इसका एक ध्रुव सदा गतिशील, अनन्त दिशाओं वाला लोचपूर्ण परिवर्तनीय तथा कम्पायमान रहता है वही इसका दूसरा ध्रुव अचल, दृढ़, अकम्प, स्तब्ध और अपरिवर्तनीय रहता है। मनुष्यात्माओं के मन में भी रचनाशीलता के लिए इन्हीं दो शक्तियों की आवश्यकता होती है संकल्प में दृढ़ता तथा नियंत्रित गतिशीलता।
जैसे ही आत्मा के मन और प्रकृति के मन के बीच सामंजस्य पूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो जाते
हैं, सृजन और सफलता के बहुआयामी द्वार स्वत ही खुलते चले जाते
हैं। ज़रूरत मात्र इस बात की है कि आपके संकल्पों में दृढ़ता हो, फिर आपकी रचनाशीलता का यह अजस्त्र स्त्रोत सदा प्रवाहित रहेगा।
3. एक्शन कर्म की शक्ति
कर्म से इस भौतिक शरीर और उसके आसपास के परिवेश का निर्माण होता है। इसे इस उदाहरण से समझें –– मान लीजिए दो व्यक्ति एक तालाब के निर्माण के लिए समाज को दो लाख रुपया देते हैं। पहला व्यक्ति निस्वार्थ भाव से जन-कल्याण के लिए दो लाख दान करता है।
दूसरा भी दो लाख का दान करता है,
लेकिन उसके मन में ऐसी कामना रहती है कि लोग हमें पुण्य आत्मा और समाजसेवी
जाने। आने वाले चुनाव में मैं सरपंच के पद को प्राप्त कर सकूँ इत्यादि और भी बहुत कुछ...। इस स्वार्थमय भाव से दान करने से दोनों में क्रमश क्या फर्क पड़ता है या
क्या फर्क पड़ सकता है इन सम्भावनाओं को देखें।
अगले जीवन में दोनों को उसके अनुरूप समान रूप से धन सम्पत्ति मकान इत्यादि मिलेंगे क्योंकि दोनों ने दो-दो लाख रूपये का दान किया है। आस-पास की और भी समान सुखद परिस्थितियाँ दोनों को एक जैसी ही मिलेगी। जैसे मित्र-परिजन इत्यादि। लेकिन इस कर्म का सब से बड़ा फर्क यह होगा कि पहला व्यक्ति सहृदय दयालू-कृपालु, निस्वार्थभाव से समाजसेवा इत्यादि दिव्यगुणों को, स्वभाव या चरित्र के रूप में लेकर जन्म लेगा। और दूसरा महा स्वार्थी, महा कंजूस इत्यादि अवगुणों के साथ जन्म लेगा पहला व्यक्ति अपने धन का अपने प्रति, मित्र-परिजन और समाज के प्रति मुक्त भाव से खर्च कर सबकी दुआओं का पात्र बन जायेगा और उसका जीवन प्रसन्नता, आनन्द और गौरव से भरपूर होगा।
उसे सभी से प्यार भी अथाह प्राप्त होगा जबकि दूसरा व्यक्ति कंजूस होने के कारण उस धन को न तो अपने प्रति तथा न तो कुटुम्ब के प्रति खर्च करेगा जिसके कारण इस जीवन में उसे न तो किसी से दुआयें मिलेगी और ना ही कोई और सुख ही प्राप्त होंगे। इसके विपरीत वह और ही लोगों से बददुआओं का पात्र बन जायेगा। परिणामस्वरूप उसके आगे के जीवन में और भी भयंकर परिस्थितियाँ होगी।
अब यदि
अगले जन्म उसे इच्छा भी हो कि मैं यह श्रेष्ठ कार्य को औरों की तरह करूँ फिर भी निकटवर्ती
परिस्थिति बदतर अर्थात् अत्यधिक गरीब होने के कारण मज़बूर होकर उस इच्छित श्रेष्ठ कार्य
को नहीं कर सकेगा और जीवन व्यर्थ के आँसूओं में बीतता जायेगा।
जैसा भी हम
कर्म करते हैं उसी के अनुरूप फल हमें इस जीवन में प्राप्त होता है। यदि किसी को दुःख
दिया तो उसके बदले में दुःख ही प्राप्त होगा। यही (एक्शन) कर्म का तीसरा नियम
है।