(भाग 6 का बाकि)
जीवन के प्रति
आत्मिक-दृष्टि का अभाव
सभी इच्छा पूर्ति के पीछे सुख की कामना होती है। फिर यह
प्रश्न उठता है कि क्या सुख बिना इच्छा पूर्ति के सम्भव है?
सभी इद्रियाँ अपने-अपने विषय भोग के प्रति लालायित रहती है। मनुष्य उन विषयों की पूर्ति के लिए इसलिए लालायित है क्योंकि वह देह और इद्रियों से आविष्ट है। वह शरीर को ही स्वयं का होना मान बैठा है और उसके साथ एक झूठा तादात्म्य स्थापित कर लिया है। प्रत्येक भोग आज मनुष्य की एक अचेतन आदत हो गई है और मनुष्य उन आदतों और मान्यताओं का गुलाम बन बैठा है।
यदि चेतना इस झूठे तादात्म्य को तोड़ ले तो उसे अपने `स्व' का बोध हो जाये कि वास्तव में वह शरीर से भिन्न है। उसका अपना स्वभाव शान्त और आनन्दित है। दुर्बल इच्छाओं के वश विवेक शून्य हो मनुष्य को इद्रिय सुख के लोभ लालच में फँसकर कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के यथार्थ स्वरूप का त्याग कदापि नहीं कर देना चाहिए, अपितु अपने आपको सदा सामर्थ्यवान स्वस्थ और पावन विचारों से पोषित करते रहना चाहिए कि वास्तव में वह प्रेम, पवित्र और आनन्द स्वरूप है। वास्तविकता भी कुछ ऐसी ही है।
हम शरीर नहीं आत्मा
है और आत्मा अपने मूल स्वरूप में सदा शक्ति स्वरूप, शान्त स्वरूप,
ज्ञान स्वरूप और आनन्द स्वरूप है। संसार की समस्त समस्याओं का कारण भी
यही है कि हम शरीर को आत्मा की तरह मान कर जी रहे हैं।
जैसे ही कोई व्यक्ति इच्छाओं के चुनाव से या विषयों के द्वद्व
से थोड़ी देर के लिए भी मुक्त हो जाता है, उसे आत्मा की शाश्वत खुशी की झलक मिलनी शुरू हो जाती है। राजयोग के माध्यम
से कोई भी व्यक्ति स्वानुभूति द्वारा अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण स्थापित कर तनाव मुक्त
हो सकता है। यह आज विज्ञान सम्मत भी है।
मन की आकांक्षा
कभी पूरी नहीं होती
श्रेष्ठ की महत्त्वकांक्षा बुरी नहीं है, परन्तु मनुष्य प्राय निकृष्ट महत्त्वाकांक्षा का शिकार होता है और अपना जीवन सुखमय नहीं रख पाता है। कहते हैं, एक सम्राट के दरबार में एक भिखारी उपस्थित हुआ और उसने कहा, ``महाराज मेरा भिक्षा पात्र भरवा दीजिये''। सम्राट ने सोचा कि यदि देना ही है तो इस छोटे से भिक्षा पात्र को अन्न से क्या भरना, अशर्फियों से भर दिया जाये। सम्राट तो तब और अधिक आश्चर्य में पड़ गया जब उसने देखा कि, जितना भी डालो उसका भिक्षा पात्र खाली रह जाता है, भरता ही नहीं। अब तो राजा के सामने प्रतिष्ठा का सवाल था।
उन्होंने आज्ञा
दी, ``मंत्री इसका भिक्षा पात्र कैसे भी हो अवश्य भरा जाये,
यह राज-आज्ञा है''। परन्तु
आश्चर्य! उधर कोष खाली हो रहा था, परन्तु
इधर भिक्षा पात्र भरने का नाम ही नहीं ले रहा था। मंत्री अचानक आवेश में बोला ``महाराज! यह कोई दुष्ट जादूगर लगता है, इसका भिक्षा पात्र साधारण नहीं है''। भिखारी ने निवेदन
किया –– ``महाराज मैं साधारण मनुष्य ही हूँ, परन्तु यह भिक्षा पात्र आदमी के हृदय का बना है''। महाराज
भिखारी के चरणों पर गिर पड़ा और कहा क़ि ––``अब यह भिक्षा पात्र
फेंक दो। न तेरा भरा है, न मेरा भरा है। यह भिक्षा पात्र भरता
ही नहीं। हम सभी इसे व्यर्थ ही भरने की कोशिश करते हैं। तुमने मेरी आँखें खोल दीं''।
भावार्थ, इच्छा को कभी पूरा नहीं किया जा सकता। लेकिन हमारे जन्मों से माँगने के और भरने के संस्कार अभी भी हमारे प्रसन्नता के मार्ग में विघ्न उत्पन्न करते रहते हैं। वैसे तो सभी कर्मों का प्रादुर्भाव इच्छा से ही होता है। फिर भी कुछ इच्छाएँ स्वाभाविक रूप से मर्यादापूर्ण होती है और कुछ लालसा और तृष्णा से पूर्ण। पहली इच्छा से तो सुख मिल सकता है, परन्तु दूसरी इच्छा यदि पूर्ण भी हो जाये तो भी वह अंतत दुःख पूर्ण ही है क्योंकि ऐसा न कभी देखा गया और न सुना गया कि बुरे कर्मों से किसी का मंगल हुआ हो।
धन, पद, मान,
प्रतिष्ठा से क्या कभी इन इच्छाओं को भरा जा सकता है? कभी नहीं। तब ही तो परमात्मा कहते हैं –– हे मानव, तुम इच्छा-मात्रम्-अविद्या बनो,
क्योंकि तुम भिखारी नहीं सम्राट हो, राजा हो,
ईश्वर-पुत्र हो। इसलिए इच्छाओं से मुक्त हो जाओ
और स्मृति स्वरूप बन अपने स्वाभिमान में स्थित रहो।
दुःख का मूल
–– अपेक्षा
जीने के दो ढंग हैं –– या तो राजा होकर जीएँ या फिर भिखारी। भिखारी अर्थात् दूसरे से सुख की माँग। पैसा माँगने का अर्थ भी अंतत सुख ही माँगना है। इस संसार में एक ही भ्रान्ति है कि दूसरे से सुख मिल सकता है। प्रथम-पत्नी से, पति से, पिता से या पुत्र से या किसी भी अन्य सम्बन्ध से तथा दूसरा धन, मकान, पद, प्रतिष्ठा तथा अनेक भौतिक साधनों से। और जिससे सुख मिले स्वभावत उससे राग या आसक्ति भी पैदा होती ही है। उसकी इच्छा होती है कि वह सदा हमारे पास रहे, हमसे दूर न जाये, हमारा हो जाये और जब भी इस आकाँक्षा के विरुद्ध कोई अवरोध पैदा करते हैं तो तक्षण द्वेष पैदा हो जाता है।
यह द्वेष कभी क्रोध में तो कभी अल्पकाल के समशानी वैराग में बदल जाता है। राग अर्थात् किसी दूसरे से सुख मिलेगा इसकी आकांक्षा और द्वेष अर्थात् किसी दूसरे से दुःख मिल रहा है इसका अनुभव। मानव मन भी कितना अजीब है। अनुभव पर आशा की विजय हो जाती है। एक मित्र जब शत्रु हो जाता है, तब हम सोचते हैं कि दूसरे से मित्रता कर लें, इस आशा में कि शायद कम-से-कम उससे तो सुख मिलेगा। लेकिन फिर जब वह मित्र भी शत्रु बन जाता है, तो हम सोचते हैं कि इससे नहीं सही, तो चलो तीसरे से तो सुख मिलेगा। लेकिन जीवन के गहरे अनुभव से भी हम गलत ही सीखते हैं। सत्य तो यह है कि कोई भी व्यक्ति सुख नहीं दे सकता।
भगवानुवाच –– किसी भी देहधारी से सुख नहीं मिल सकता। यदि मिलता भी है तो अल्पकाल का सुख और वह भी सदाकाल के दुःख में बदल सकता है। जिस दिन यह बोध, यह समझ पैदा हो जाये कि सुख दूसरे से नहीं बल्कि आत्मा के स्वरूप में, स्वभाव में स्थित होने से मिल सकता है उस दिन हम सुख के इस भ्रान्ति से मुक्त हो जायेंगे। मात्र जगत कल्याणी प्रभु से ही अनेक प्रकार के सुख, शान्ति का वर्सा मिल सकता है।
गहराई से इस बात पर जब हम विचार करते हैं तो
पाते हैं कि जब किसी दूसरे से सुख नहीं मिल सकता है तो दूसरे से दुःख भी नहीं मिल सकता
क्योंकि जहाँ दूसरा नहीं वहाँ राग भी नहीं और द्वेष भी नहीं। जितना हम दूसरे से अपेक्षा रखते हैं उतना ही अधिक हमें दुःख
मिलने की संभावना बढ़ जाती है। जितना नज़दीकी सम्बन्ध, उतनी गहरी अपेक्षा, उतना
गहरा दुःख यह सत्य सिद्धाँत है।
द्वेष –– ईर्ष्या मूलक है
अनुभव कहता है इस संसार में बड़े से बड़ा व्यक्ति भी यह सहन नहीं कर पाता है कि कोई उससे आगे बढ़े, उसका दोष मात्र इतना ही है कि यदि आप कष्ट पूर्ण हैं, आपका चरित्र किसी ने झूठे आरोप से कलंकित कर दिया है, गरीबी से दीन-हीन बन गये हैं तो दूसरे को शान्ति मिलती है। करुणा, दया और सहानुभूति के नकली बोल आपको दूसरे से अवश्य मिल जायेंगे, परन्तु इससे अधिक और कुछ भी मिलने वाला नहीं। जैसे ही किसी क्षेत्र में आप प्रगति करते हैं, अकारण ही वैसे लोग जिनसे आपका कुछ भी लेना देना नहीं, दुश्मनी किये बैठे मिल जायेंगे।
आश्चर्य! जिनका आपने कुछ नुकसान नहीं किया वे भी वार करने के लिए उपयुक्त मौके की तलाश करते मिल जायेंगे। जितना आप शिखर पर आरोहण करेंगे उतना ही वे लोग खीज और झुंझलाहट से भरते चले जायेंगे। उनका हृदय तो तब ठंडा होगा, तब तक आपका मटियामेट न हो जाएँ। इसके और कोई भी कारण नहीं - सिवाए ईर्ष्या के। यही आज के मनुष्य का विकृत स्वभाव है। उन्हें इतना दुःख अपनी असफलता पर नहीं होता जितना आपकी सफलता पर। तब ही तो आप देखते होंगे कि दूर वाले व्यक्ति के गलत व्यवहार से मनुष्य जितना दुःख का अनुभव नहीं करता उतना नज़दीक वाले से करता है।
अक्सर लोग कहते हैं –– दूसरे कहे तो कोई बात नहीं, आप कहते हैं तो हमारा दिल ही टूट जाता है। इसलिए महान् उद्देश्य और सम्पन्नता
की ओर बढ़ रही आत्मा को किसी से भी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। अपेक्षा अर्थात् बदले
में सुख की आकांक्षा। जिसने भी यह राज़ समझा उसने सभी दुःख के बीज अपने जीवन से समाप्त
कर दिये। परमात्मा तो यहाँ तक कहते हैं कि `बच्चे मुझसे भी माँगो
नहीं'। माँगने का यह संस्कार भी समाप्त करो। अपने आत्मिक-स्वाभिमान में रहकर मुझे याद करते श्रेष्ठ कर्म करते चलो। हाँ, परमात्मा से जो खुशी मिली है उसे लुटाइए ज़रूर, ताकि
आपका अपना जीवन अनन्त खुशियों से भर जाये।
ज्ञान और आचरण
में समानता
ज्ञान या नैतिकता यदि हमारे चरित्र और आचरण में नहीं उतरा, हमारे जीने के ढंग को नहीं बदला, तो फिर वह धीरे-धीरे जीवन में बोझ बन जाता है। मान लीजिए,
आपने खाना बहुत खा लिया, परन्तु यदि वह पचा नहीं
तो शक्ति बनने के बदले वह और ही आपको बीमार कर देगा। ठीक उसी प्रकार यदि ज्ञान आचरण
में उतर आया तो माना वह पच गया और रक्त बन गया। वह ज्ञान आपकी सम्पत्ति बन गई,
आपका अपना अनुभव बन गया। सच्चे अर्थों में अब आप शक्तिशाली बने हैं।
ज्ञान का पच जाना अर्थात् कर्मेद्रियों के धरातल पर जीवन व्यवहार में उसका उतर जाना
ही श्रेष्ठ आचारण कहलाता है। श्रेष्ठ आचरण अर्थात् वैसा ही, जैसा
कि ज्ञान कहता है।
उदाहरण : पानी के बारे में आपकी कितनी ही जानकारी हो लेकिन
उससे प्यास तो नहीं बुझेगी। ठीक उसी प्रकार ज्ञान आपके पास कितना भी हो, जब तक वह आचरण में नहीं आया, आपने पीकर उसे पचा नहीं
दिया तब तक वह व्यर्थ ही है, बोझ ही है। आचरण अर्थात् जो भी श्रेष्ठ
संकल्प का बीज पैदा हो उसे कर्मक्षेत्र पर बो देना चाहिए जिससे उसका फल निकल जाये।
यदि उस बीज को `कल करेंगे' की तिजोरी में
संभालकर रख दिया तो वह सड़ जायेगा। क्योंकि संकल्प सबसे संवेदनशील तत्व है वह तुरन्त
समाप्त हो जाता है।
आचरण अर्थात् राजहंस की स्थिति। इसलिए महापुरुषों की तुलना हंस से की गई है। वह राजहंस की तरह असार और सार को अलग कर देता है। व्यर्थ का कूड़ा-कचरा समाप्त कर जीवन को दिव्यगुणों के हीरे-मोतियों से सजा देता है। राजहंस की दो विशेषताएँ हैं –– पहला तो सार-असार को अलग कर देता है। दूसरा –– वह सभी दिशाओं में गतिमान हो सकता है।
जैसे वह
पानी में तैर सकता है, आकाश में उड़ सकता है, जमीन पर भी चल सकता है। महान् लोगों को हंस समान बहुआयामी होना चाहिए। आकाश
में उड़ना अर्थात् अन्तवाहक बन विश्व आकाश में सर्व आत्माओं के प्रति शुभ एवं श्रेष्ठ
चिंतन का प्रकम्पन फैलाना। जल में तैरना अर्थात् समस्यों के सागर में तैरते हुए दूसरे
लोगों को डूबने से बचाना और जमीन पर चलना अर्थात् कर्मेद्रियों के धरातल पर श्रेष्ठ
धारणाओं द्वारा दिव्य कर्म करना।
जैसे ही विकल्पों, राग-द्वेषों के द्वद्वों और चुनावों से कोई व्यक्ति मुक्त होने लगता है, शान्ति का सौरभ नित्य निरन्तर उसके जीवन में फैलने लगता है। जैसे-जैसे उनकी अपेक्षाएं क्षीण होने लगती है, वैसे-वैसे उसके आत्म-चिंतन का तेज, ज्ञान और चरित्र की निर्मलता से आत्मा का अनिर्वचनीय आनंद और आलोक आविर्भूत होने लगता है।
आज हम सभी के लिए आवश्यकता इस बात की है कि अपनी
आन्तरिक वृत्तियों को दृढ़ता और सत्यनिष्ठा से शुद्ध करें। सभी राग-द्वेष मूलक विचारों को समाप्त कर अपने अनादि आत्मिक-स्वभाव
में रमण करें। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं जिसे नहीं किया जा सके। सबकुछ हो सकता है। लेकिन
इसके लिए संकल्प में दृढ़ता और परमात्मा में अखण्ड और अटूट निश्चय हो। फिर देखिये आपके
अन्दर दिव्य आनंद का अमृत सागर हिलोरें मारने लगेगा। निश्चय ही तब आप व्यर्थ की इच्छा
से मुक्त हो सकते हैं।
इच्छा को आवश्यकता
न बनने दें
मानव की आवश्यकता तो पूर्ण हो सकती है परन्तु इच्छा नहीं।
यही ईश्वरीय नियम है।
–– जॉर्ज बर्नाड शॉ
हमारी वास्तविक इच्छा कितनी न्यून है, काल्पनिक कितनी अधिक।
–– लेडवेटर