भाग्यनिर्माण में इच्छा-शक्ति (Part 8 : L A S T)

0

 


(भाग 7 का बाकि)

आवश्यकता के लिए धन कमाना अच्छा है, परन्तु धन की अधिक भूख मनुष्य को पतन की ओर ले जाती है। इसलिए अपनी इच्छा को कम कर दें तो समस्या अपने आप चली जाएगी। यदि आप सदा प्रसन्न रहना चाहते हैं तो प्रशंसा सुनने की इच्छा को त्याग दें। मनुष्य स्वयं इच्छा-मात्रम्-अविद्या होकर सर्व की इच्छा पूर्ण कर सकता। क्योंकि वास्तव में वही सम्पत्तिवान हैं।

सर्वप्रथम मनुष्य को यह समझना आवश्यक है कि इच्छा और आवश्यकता में क्या अन्तर है? निरंतर अभ्यास और `इच्छा-मात्रम्-अविद्या' की स्थिति सभी बन्धनों से मुक्त स्थिति को प्राप्त करने की आधारशिला है। प्रश्न उठता है कि क्या मानव दुरूह इच्छाओं को त्यागकर `इच्छा-मात्रम्-अविद्या की स्थिति को पा सकता है? आइये, थोड़ा विचार-विमर्श करें, इन इच्छाओं पर। इसे ध्यान से समझें। इच्छाएँ मन से तथा आवश्यकताएँ शरीर से जुड़ी हैं।

हम न तो मात्र शरीर हैं और न ही मन, बल्कि आत्माएँ हैं। शरीर की अपनी आवश्यकतायें हैं और आत्मा की अपनी। उसके ठीक मध्य में है मन, जिसमें इच्छाएँ हैं। शरीर की आवश्यकतायें हैं भोजन, वत्र, मकान इत्यादि। आत्मा की आवश्यकता है –– धर्म, अध्यात्म। मन के पास इच्छाएँ हैं। किसी चीज़ की कोई ज़रूरत न होने के बावजूद भी मनुष्य अनावश्यक आवश्यकताओं का निर्माण कर लेता है।

ध्यान देने पर पता चलता है कि इनका अस्तित्व कभी आवश्यकता के रूप में था ही नहीं। इच्छाएँ तो स्वप्न की भाँति हैं। इनकी कहीं भी कोई जड़ें नहीं हैं –– न पाताल में, न आकाश में। फिर इन्हें तृप्त कैसे किया जा सकता है? आवश्यकताओं की तो पूरिपूर्ण तृप्ति हो सकती है, लेकिन इच्छाओं की नहीं।

कहावत भी है –– `पेट तो भरा जा सकता है, लेकिन पेटी नहीं'। उदाहरण –– जब हमें भूख लगती है तो निसन्देह भोजन की आवश्यकता खत्म होते ही हम रुक जाते हैं। क्योंकि पेट कहता है, बस। लेकिन मन कहता है ––  थोड़ा और... कितना स्वादिष्ट भोजन है! यही है इच्छा। हम प्यासे हैं और जितने पानी की ज़रूरत होती है उतना पानी पी कर प्यास से मुक्ति पा लेते हैं। थोड़ा भी ज़्यादा नहीं पीते। लेकिन जब लिमका, थम्स-अप या कोई अन्य मनपसंद शीतल पेय सामने आ जाये तो हम ज़्यादा पी लेते हैं, यही है मन की इच्छा।

ध्यान रखने योग्य बात यह है कि कहाँ आवश्यकता समाप्त होती है और कहाँ से इच्छा प्रारम्भ हो जाती है। यदि यह बात हमारे ख्याल में आ गई तो इच्छाओं से मुक्ति का एक सूत्र समझे हमने पा लिया। ऐसे लोग भी हैं जो आवश्यकताओं को गिरा देते हैं और इच्छाओं को बढ़ा लेते हैं। जैसे यश के लोभी। लोग आवश्यकताओं को छोड़कर इच्छाओं की पूर्ति करते हैं और मान-शान के पीछे तन-मन के विश्राम की आवश्यकता तक को भी छोड़ देते हैं।

आवश्यकताएँ परिपूर्ण की जा सकती है और दबाई भी जा सकती है, परन्तु इच्छाएँ न तो परिपूर्ण की जा सकती हैं और न तो दबाई ही जा सकती हैं। एक व्यक्ति भोजन की आवश्यकता को दबाकर उपवास रख सकता है, लेकिन मन की इच्छाओं का दमन नहीं किया जा सकता। पूर्णता तो इसका स्वभाव ही नहीं है। इच्छाएँ तो सपनों जैसी है। मात्र यथार्थ समझ से यह समाप्त हो सकती हैं।

यदि हम प्रसिद्ध होना चाहते हैं तो यह एक सपना है, इच्छा है। बाल्टेयर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि जब मैं प्रसिद्ध नहीं था तो हर वक्त ईश्वर से प्रार्थना करता था कि ``हे प्रभु! मुझे प्रसिद्ध कर दो, कुछ बना दो, ताकि मेरा नाम-मान हो जाए''। एक दिन उसने प्रसिद्ध के शिखर को पा लिया। उसने आगे लिखा है कि ``प्रसिद्ध के कारण मुझे सड़क पर सहज रूप से घूमना-फिरना भी कठिन हो गया''

उन दिनों नंस में अन्धविश्वास था कि यदि आप प्रसिद्ध व्यक्ति के कपड़े के टुकड़े का लॉकेट भी बनाकर रख लें तो अपने को भाग्यवान समझो। बाज़ार से घर आने तक वाल्टेयर के शरीर पर कपड़े का एक टुकड़ा भी नहीं बचता था। बाद में तो उसे घर से निकलने और घर तक पहुँचने में पुलिस का सहारा लेना पड़ा। उसने भगवान से फिर प्रार्थना की कि –– ``हे प्रभु! मेरा जीवन तो परतंत्र हो गया है, मुझे फिर से पहले जैसे ही बना दो''

ज़रा गौर कीजिए : प्रसिद्ध हमारे शरीर की कौन-सी ज़रूरत को पूरा करती है? प्रसिद्ध तो व्यक्ति को कैदी बना देती है। शरीर को इस प्रकार की व्यर्थ चीज़ों की कोई ज़रूरत नहीं है। उसकी आवश्यकता तो बड़ी ही सीधी-सादी है - भोजन, पानी, कपड़ा, गर्मी-सर्दी से बचने के लिए एक मकान आदि, परन्तु आज मानवता अपने सुन्दर मार्ग से भटक गई है। शरीर की आवश्यकताओं के कारण नहीं, बल्कि इच्छाओं के कारण।

नासमझी तो इतनी है कि इच्छाओं का गुलाम आदमी भोजन तो छोड़ देता है, परन्तु अखबार, सिगरेट व सिनेमा नहीं। उसका मन तो हिटलर की तरह तानाशाह बन जाता है। वास्तव में सरल-सहज जीवन के लिए मान-शान, पद-प्रतिष्ठा की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि यह शरीर की किसी भी आवश्यकता को पूरा नहीं करते। अपने आपसे हम पूछें कि क्या इस प्रसिद्धि से शरीर की ज़रूरतें पूरी होती हैं? क्या हम शान्ति सम्पन्न हो जाते हैं? क्या हम ज़्यादा आनन्दित हो जाते हैं, नहीं।

मन तो कहता है आधुनिक फर्नीचर, आधुनिक फैशन वाले कपड़े चाहिए। साक्षी होकर देखें तो आधुनिक फर्नीचर बिल्कुल ही शरीर को आराम नहीं पहुँचाता है। आदमी बहुत सारी वेकार की चीज़ें फैंशन के नाम पर अपनाता जा रहा है।

शरीर की आवश्यकताएँ सीधी-सरल हैं उनका दमन नहीं करना है। दमन से वह अस्वस्थ हो जायेंगी, इस अर्थ में शरीर सुन्दर है। मन की फालतू इच्छाओं की परवाह नहीं करनी है। उनका दमन कर देना है। उन्हें हमें मार डालना है। इन इच्छाओं को मारने से कोई रक्तपात नहीं होगा, क्योंकि ये रक्तविहीन हैं। लेकिन आवश्यकताओं को नहीं मारना है। इनको मारते ही सब-कुछ मर जायेगा।

यदि इच्छाओं को मारेंगे तो कुछ मरेगा नहीं, बल्कि हम ज़्यादा मुक्त और ज़्यादा स्वतत्र अनुभव करेंगे। व्यर्थ की इच्छाओं से शून्य और यथार्थ आवश्यकतायुक्त बनकर चलने वाले सम्पन्नता के मार्ग पर तीव्रता से अग्रसर होकर मंज़िल को प्राप्त कर लेता है। अब विचार, विमर्श और निर्णय आपके हाथ में है कि जीवन में सफलता और आन्तरिक प्रसन्नता के मार्ग पर इच्छा और इच्छा शक्ति कहाँ और कितनी उपयोगी है।

(समाप्त)

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।
Tags

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top