प्रसन्नता का आधार –– नि:स्वार्थ दान (Part 1)

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प्रसन्नता का आधार –– नि:स्वार्थ दान

क्या है प्रसन्नता?

प्रसन्नता एक सुखद अहसास है जो आपके चुनाव पर निर्भर करता है। इसे मनुष्य का सौभाग्य कहें या एक सुखद संयोग। क्योंकि इसका संबंध ना तो धन से है, ना समाज से और ना ही इज्जत-प्रतिष्ठा से।

कौन नहीं चाहता है कि उसका सर्वांगीण जीवन प्रसन्नता के आलोक से जगमगाये। कौन नहीं चाहता है कि उसके माथे पर सफलता का विजयी ताज, प्राप्तियों के रत्नों से जड़ा हुआ खुशियों से दीप्त आनन की शोभा में चार चाँद लगाएं। यह भूख इतनी पुरानी है जितना मनुष्य खुद। प्राय लोग जीवन में प्रसन्नता के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। 

मनोवैज्ञानिक कहते हैं लोगों की इच्छा में जो सर्वाधिक गहरी इच्छा है, वह है –– जीने की इच्छा। और कोई भी व्यक्ति दुःखी होकर जीना नहीं चाहता। वह प्रसन्न होकर जीना चाहता है। इच्छित फल की प्राप्ति से मनुष्य को एक प्रकार की तृप्ति का बोध होता है। तृप्ति का यह बोध मनुष्य के अन्तरतम चेतना में एक प्रकार की भाव तरंग को पैदा करता है जो तन-मन को एक सुखद प्रकम्पन से भर देता है। प्रकम्पन के इसी मनसबोध को प्रसन्नता कहते हैं।

प्रसन्नता सर्व प्राप्तियों की निशानी है। प्रसन्न वही रह सकता है जो सदा श्रेष्ठ सोचता और श्रेष्ठकर्म करता है। श्रेष्ठकर्म अर्थात् स्वयं भी संतुष्ट तथा अन्य भी संतुष्ट और जहाँ संतुष्टता है वहाँ सभी की दुआएँ भी हैं। प्रसन्नता अर्थात् खुशी। खुशी का खज़ाना सबसे बड़ा खज़ाना है। जहाँ खुशी नहीं वहाँ जीवन नहीं। श्वास भले ही चली जाए, परन्तु खुशी नहीं जानी चाहिए। प्रसन्नता का आधार यदि प्रशंसा है तो ऐसी प्रसन्नता अल्पकालिक होगी।

बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेहि

कल को याद करने से बेहतर है उससे मिली शिक्षाओं को याद करना। क्या इन दोनों में आपको कोई अन्तर दिखाई देता है?

अतीत धूल है उसे सम्भाले रखना वहाँ की समझदारी है। भूल सभी से होती है, परन्तु उसे स्मृतियों पर बोझ स्वरूप ढोना तो ऐसे है जैसे ट्रेन में सफर कर रहा कोई अपनी गठरी अपने सिर पर उठाये हुए है। जिन पुरानी घटनाओं से मन आहत हुआ हो जिस पर पश्चाताप किया जा चुका हो, जिसका स्मरण कर जीवन की मुस्कान खो जाती हो, उसे वर्तमान में पुन याद कर दुःखी होना और अपने वर्तमान जीवन को प्रसन्नता से दूर रखना ऐसी समझदारी को क्या कहा जायेगा।

अच्छा होगा कि उस राख को दफन कर दिया जाए बस... और भुला दिया जाए। हमारी स्मृति में याद रखने और अनावश्यक को भूल जाने की एक प्रमुख विशेषता है। क्यों न उन विशेषताओं को जीवन की प्रसन्नता के लिए उपयोग कर लिया जाए। अतीत की भूलों के लिए पश्चाताप से बेहतर है कि उसे भविष्य में न दुहराने के लिए प्रतिज्ञा कर अपनी कार्य कुशलता में वृद्धि करना तथा वर्तमान के समय को सदुपयोग में लाना।

क्षुब्ध बनाने वाली, अत्यधिक नुकसान पहुँचाने वाली पुरानी बातों का स्मरण हमारी शारीरिक शक्तियों से कहीं अधिक हमारी मानसिक शक्तियों का ह्रास करता है। यदि जीवन को ऊर्जामय, प्रतिभा सम्पन्न और उमंग-उत्साह वाला बनाना हो तो इस नकारात्मक सोच को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए।

वर्तमान में आज का सौभाग्यशाली दिन आपको प्रभु ने प्रसाद स्वरूप में दिया है। उसे उत्सव बना दीजिये, बीते दिनों के कारण आने वाले कल को मत खोइए। दफ्तर की बातें वहीं ताला लगाकर, आनन्द और विश्राम द्वारा नई ऊर्जा से भर देने वाले अपने घर में प्रवेश कीजिए, जहाँ आपको कल के लिए नया विश्वास नई प्रेरणा, नया साहस प्राप्त होगा। अपने घर को प्रसन्नता पैदा करने वाला जनरेटर बनाइए, जो प्रतिदिन की थकान से मुक्ति दिलाकर फिर से कल के लिए तरो ताजा कर दें।

प्रसन्न रहने की आदत डालना –– एक स्वस्थ दृष्टिकोण

जीवन में यदि आवश्यकताओं की सूची बनानी हो तो पहला नम्बर प्रसन्नता को दीजिए। यह चिन्तन मनन करना और उसको कार्य की भाँति क्रिया रूप देना, यह सबकुछ आपके खुद के ऊपर निर्भर करता है कि सभी परिस्थितियों में प्रसन्नता को चुनकर कैसे उसे आत्मसात किया जाये।

तीन हँसते महात्मा

तिब्बत में तीन संत थे। वे जहाँ भी जाते सदा लोगों को इतना हँसाते थे कि लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाया करते थे। जिस प्रकार रोग मनुष्य को संवमिक कर देते हैं, उसी प्रकार प्रसन्नता भी लोगों को संवमित कर लेती है। वे लोगों की भीड़ में जाकर जोर-जोर से हँसने लगते थे, स्वभावत आश्चर्य से लोग उन्हें हँसते देखकर हँसने लग जाते थे। उस बात का पता हँसने वालो को भी नहीं हो पाता था कि उन्होंने कब हँसना शुरू किया।

जब हँसने वालों की एक बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हो जाती थी तब वे संत चुप हो जाते थे। जब लोगों की हँसी रूकती तो वे लोगों से पूछते थे कि आप लोग क्यों हँस रहे थे। लोगों के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं होता था। तब वे संत कहते थे बिना किसी कारण के भी मनुष्य प्रसन्न रह सकता है क्योंकि प्रसन्नता व्यक्ति का आन्तरिक स्वभाव है।

मात्र जीवन के प्रति प्रसन्नता के इस दृष्टिकोण को आदत बना लेने से ही हम प्रसन्न रह सकते हैं। हम अपनी पुरानी उन आदतों से, जो नकारात्मक सोच का परिणाम है, इतने जुड़ गये हैं कि जीवन में अप्रसन्नता के अनेक दूसरे कारणों को इसका ज़िम्मेदार ठहरा देते हैं, परन्तु ऐसा नहीं है। वे महात्मा, लोगों के व्यावहारिक रूप से इस बात का अहसास करा देते थे कि प्रसन्नता, प्रसन्नता के लिए है। यदि कोई इसे चाहे तो अभ्यास और आदत से जीवन में ला सकता है। जीवन के प्रति प्रसन्नता का दृष्टिकोण मात्र विकास का सवाल है।

क्या सदा प्रसन्न रहना सम्भव है?

महात्मा बुद्ध ने कहा `तृष्णा दुष्पुर है', इच्छाओं का स्वभाव है –– पूरा नहीं होना। मानवीय इच्छा समुद्र की लहरों की तरह अंतहीन है।

 

मानव की आवश्यकता पूर्ण हो सकती है, इच्छा नहीं, यही ईश्वरीय नियम है।

–– स्वामी रामतीर्थ

समस्त भय और चिन्ता इच्छाओं का परिणाम है।

–– जॉर्ज बर्नाड शॉ

इच्छा और आँसू जुड़वा बहनें हैं।

–– साधु वासवानी

 

मनुष्य हमेशा अभाव में जीता है। जो मिला है उसकी खुशी क्षणभर की मिलती भी नहीं कि जो नहीं है उसे पाने की इच्छा पैदा हो जाती है। इच्छा चाहे धन की हो, यश की हो, पद की हो या प्रतिष्ठा की, वह सदा दूसरे पर ही आधारित होती है। पुरुषार्थ तो मनुष्य के हाथ में है, परन्तु फल अनेक तरह ही अनिश्चिताओं में फंसा रहता है। चिन्ता और संदेह की मनोदशा में व्यक्ति प्रसन्न कैसे रह सकता? ऊहापोह की इस दशा में प्रसन्नता कभी दूर की खजूर व कभी टेढ़ी खीर ही साबित होती है। एक हद तक तो इन भौतिक उपलब्धियों पर प्रसन्नता अपेक्षित है, परन्तु पूर्णत नहीं।

शेष भाग - 2

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।

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