प्रसन्नता का आधार –– नि:स्वार्थ दान (Part 2)

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(भाग 1 का बाकि)

क्या ज्ञान-योग के माध्यम से प्रसन्नता सम्भव है?

कुछ ध्यान करने वाले या आध्यात्मिक दृष्टिकोण वालों का मानना है कि यह सम्भव है। यदि मनुष्य कुछ आध्यात्मिक अन्तर नियमों का प्रयोग करें तो यह हो सकता है। पूर्व में प्रसन्नता की व्याख्या हो चुकी है कि यह एक सुखद प्रकम्पन है। यदि लोग इस भेद ज्ञान को अनुभव कर सकें कि आत्मा अर्थात् चेतना और शरीर अलग-अलग है। आत्मा एक सूक्ष्म अव्यक्त प्रकाश बिन्दू है। विचार, भाव, इच्छा इन शक्तियों द्वारा शरीर पर अपना प्रभाव उत्पन्न करता है और विभिन्न कर्मों का सम्पादन करता है।

यदि मनुष्य योग की दिशा में कुछ दिन तक लगातार सचेतन प्रयास करे तो उसे प्रसन्नता के इस प्रकम्पन का बोध स्पष्ट अनुभव होगा। जैसे-जैसे उसकी वृत्ति अंतर्मुखी होती चली जायेगी... विचार शान्त होते चले जायेंगे... परमात्मा के सूक्ष्म चिन्तन से क्रमश एक हल्कापन और आनन्द की किरणें उसके चारों ओर उसके अन्दर से फैलती हुई महसूस होती चली जायेंगी। ऐसे क्षणों में आपका तादात्म्य थोड़े क्षणों के लिए शरीर से टूटकर खुद की आत्मा से जुड़ जाता है। आगे की अनुभूति आपका अपना विषय बन जाता है।

प्रसन्नता का यह प्रकम्पन बिना किसी इच्छित फल या भौतिक पदार्थ के सम्भव लगने लगता। इच्छा से मुक्त थोड़े क्षणों का यह आत्मा-परमात्मा का मधुर मिलन, उस अद्भुत ऊर्जा के प्रकम्पन को पैदा करता है, जो तन-मन को एक अनिवर्चनीय प्रसन्नता से भर जाता है। ऐसे लगता है कि धूल-धवास से भरे चित्त ने शीतल जल से स्नान कर लिया हो। जीवन में सुख-दुःख मात्र इसी प्रकम्पन का खेल है। आप प्रसन्नता के प्रकम्पन को पैदा करना सीख लीजिए। बस प्रसन्न रहने की कला या प्रसन्नता के दृष्टिकोण की विद्या सीख जायेंगे।

निस्वार्थ सेवा –– प्रसन्नता की गंगोत्री

यदि आपको परमात्मा के इस गुण का अनुभव करना हो कि परमात्मा प्रसन्नता का सागर है तो आपको उन पीड़ितों और अभावों में फंसे दुःखी लोगों की निस्वार्थ भाव से सेवा शुरू कर देनी चाहिए। निस्वार्थ सेवा प्रसन्नता की गंगोत्री है। बिना प्रतिदान के भाव के मानवता के प्रति आप का अंशदान भी आपके जीवन में प्रसन्नता ले आएगा। दान, मनुष्य को श्रेष्ठ और शुभ की ओर गतिशील करता है।

 

ईश्वर का टेलीफोन नम्बर –– निरहंकारिता है।

–– भक्त किल साई

आनन्दमय मानव से भेंट सौ रुपये की नोट पा जाने से अच्छा है, वह कल्याण की किरण फेंकने वाला केद्र है और उसका किसी कमरे में प्रवेश करना ऐसा है मानो एक शमा और जला दी गई हो।

–– स्टीवेन्सन

 

मानव जीवन में प्रसन्नता प्रभु-प्रदत्त सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अमृत-प्रसाद है। जीवन के बहुंगी आयामों में सफलता की कथा गाथा का प्रेरणा स्त्रोत है –– प्रसन्नता। जीवन की विषम परिस्थितियों में से कुशलतापूर्वक बाहर निकल आने का मार्ग-दर्शक यदि कोई है तो वह है मनुष्य के खुद का प्रसन्नताभरा मानसिक दृष्टिकोण चाहे कोई भी कष्टकारक परिस्थितियाँ क्यों न हो।

दुनिया में ऐसे खुश मिजाज लोग आपको यहाँ वहाँ मिल ही जायेंगे जो विनोदप्रिय और सदा प्रसन्न रहते हैं। उनके सानिध्य में आकर दूसरे लोग भी उस सकारात्मक ऊर्जा प्रसन्नता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। चाहे दुःख हो, चाहे सुख, प्रसन्नता ऐसे लोगों के स्वभाव की नियति बन जाती है। जबकि दूसरी तरफ प्राय लोग छोटी-मोटी बातों में ही उलझ जाते हैं।

आत्म-विश्वास के अभाव में उनके मुख मंडल से प्रसन्नता की चमक फीकी पड़ जाती है। जब भी हम मुस्कुराते हैं तो हमारे साथ-साथ पूरी दुनिया मुस्कुराती है और रोने के समय हमें इसे अकेले ही करना पड़ता है। इसलिए प्रसन्नता कठिनाई में साहस की आन्तरिक शक्तियों का संचालन करता है।

जिसने ईमानदारी से, परिश्रम पूर्वक अपने उत्तरदायित्व का कर्त्तव्य पालन किया हो, जिसने निन्दा-स्तुति, मान-अपमान में प्रसन्नता, अप्रसन्नता सभी परिस्थितियों में समभाव का अनुशासन पालन किया हो वह नरकेसरी यदि स्वाभाविक रूप से प्रसन्न नहीं रह सकता तो फिर और कौन रहेगा? आप खुद प्रसन्न हैं यह भी उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि जगत के कल्याण के लिए या किसी महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए सेवा भाव से आप अपना सबकुछ दूसरों के लिए न्यौछावर कर देते हैं। दूसरों के आनन्द और प्रसन्नता में कैसे वृद्धि हो, ऐसे सोचने और करने वाले सदा प्रसन्न और आनन्दित रहते हैं।

निस्वार्थ भाव से जो दूसरों का उपकार करता और उन सभी लोगों के लिए प्रभु से मंगलमय प्रार्थना करता उसके लिए शुभ-भावना रखता, दूसरों के आँसू पोछता, उनमें धैर्य और उत्साह का संवर्धन करता, ऐसे परहितकारक महापुरुष के खुद का जीवन प्रसन्नता का अक्षय स्त्रोत बन जाता है। परोपकारी हृदय में स्वत ही प्रसन्नता के सुमन खिलते हैं।

गिरते हुए को सहारा देकर, ज़रूरतमंद और लाचार को सहायता देकर, दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को हॉस्पिटल पहुँचा कर, भूख से व्याकुल व्यक्ति को खाना खिलाकर, और किसी घायल को मरहम पट्टी कर, क्या आप आत्मा संतुष्टी और प्रसन्नता का अनुभव नहीं करते हैं?

वे सभी निर्मल और स्वास्थ्यवर्धक विचार, परोपकार और सत्य से प्रेरित वे सभी महत्त्वाकाँक्षाएं, जीवन को महानता की ऊँचाइयों पर ले जाने वाली वे मंगलमय कामनाएँ और वे बहुमूल्य उद्देश्य जो निस्वार्थ प्रयास से प्रेरित हों, मनुष्य को आन्तरिक आनन्द से गद्गद कर उनमें असीम प्रसन्नता का संचार करता है। ऐसे सच्चे हृदय से परोपकारी भावना वाले व्यक्ति के जीवन से समस्त आपदाएं समाप्त हो जाती हैं। और पग-पग पर जीवन एश्वर्य की प्राप्ति होती है।

जैसे फूल अपने लिए नहीं खिलता, वृक्ष अपने लिए नहीं फलता, सरिता अपने मूल से सागर तक निरन्तर परहित में दिन-रात प्रभावित रहती है, उसी प्रकार परोपकारी मनुष्य सभी में मुक्त हस्त से प्रसन्नता को बांटकर उनके हृदय कुसुम को खिला देता है। जिससे परिणाम में वह इस दुनिया में भी प्रसन्न रहता है तथा परलोक में भी। मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी भी तभी बनता है जब वह परोपकारी वृत्ति वाला बनता है।

ऐसे परोपकारी भाव वाले प्रसन्न मनुष्य इसलिए सफलता को प्राप्त करते हैं कि जीवन के सभी केद्रों पर लोग उनका जानदार स्वागत करते हैं। चाहे वह मित्र मंडली हो या ऑफिस व्यवसाय हो या दुकान। इसके लिए अवगुणी दृष्टि को त्यागना आवश्यक है। अपने आप से लोगों को इस बात की प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि हम किसी में भी अवगुण को नहीं बल्कि सद्गुणों को देखेंगे।

जबकि मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम रचना है फिर निश्चित ही ऐसा नहीं हो सकता कि उसके हाथ गुणों से खाली हों। जगत में परोपकार के लिए परमात्मा ने उसके दामन में कुछ बहुमूल्य गुण रूपी रत्न अवश्य ही छिपाकर दिये होंगे। अब यह निर्भरता आपके ऊपर है कि आप उसे देख पाते हैं या नहीं। हम सदा मीठी और प्रेरणामय वाणी का प्रयोग करेंगे, सदा दूसरे को मिलते ही मुस्कान भरी प्रसन्नता की दृष्टि से देखेंगे। खुद के जीवन में इस बात के परिणाम आश्चर्यजनक और सुखद होंगे।

                                                                                                                                                   शेष भाग - 3


प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।

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