(भाग 3 का बाकि)
प्रसन्नता
की अनुपम उपलब्धि का आधार है –– दान
जहाँ भी जीवन में आनन्द का या प्रसन्नता का अनुभव है वहाँ उसके पीछे दान अवश्य ही खड़ा है। प्रसन्नता बाँटने से कई गुणा हो जाती है और दुःख बाँटने से आधा कम हो जाता है चाहे वह दिखाई दे या नहीं। इसलिए प्रसन्नता बाँटी जा सकती है क्योंकि दूसरा इसे लेने को तैयार है, परन्तु दुःख बाँटा नहीं जा सकता क्योंकि इसे लेने के लिए कोई भी तैयार नहीं है।
आनन्द सतत् आन्तरिक प्रवाह है और प्रसन्नता मुखमंडल पर उसकी अभिव्यक्ति। बाइबल
में लिखा है ईश्वर प्रसन्नदाता से प्यार करता है। ईश्वर का विशिष्ट लक्षण है –– दान। बाहर जाइये और किसी की सेवा कीजिए वह आपको दुःख से छुड़ायेगा और प्रसन्नता
प्रदान करेगा।
सबसे ऊँचे प्रकार का दान –– आध्यात्मिक दान है।
–– स्वामी विवेकानन्द
उदार दान से भी बढ़कर है –– मधुर वाणी, स्निग्ध और स्नेहार्द दृष्टि।
–– तिरुवाल्लुवर
जो कुछ भी हम दूसरों को देते हैं वास्तव में वह सब हम अपने
आपको दे रहे हैं। अगर तथ्य को पहचान लिया तो फिर ऐसा कौन होगा जो दूसरे को न दे।
–– महर्षि रमण
दान का यह अर्थ नहीं है कि हम अपना सबकुछ लुटा दें। तुम्हारे
पास जितना धन है, उसके अनुसार ही दान-दक्षिणा दें, योगक्षेम का बस यही तरीका है।
–– तिरुवाल्लुवर
बिना विचारे दान करने की प्रथा तो भले मानस भिखारियों की
ही संख्या बढ़ाती है।
–– स्वामी रामतीर्थ
सभी दर्शन में जो सारभूत है वह है –– `दान'।
आध्यात्मिक चिंतन का जो निष्कर्ष है वह है –– `दान'।
वर्तुलाकार जीवन चक्र में जो गति है, उस गति का मूल है `दान'। कर्म के जगत में कर्मफल की जो पहेली है उसका आधार भी यह एक शब्द है –– `दान'। जीवन-दर्शन में कर्म का एक
चिरन्तन सत्य सिद्धान्त है –– `देना ही लेना है' अर्थात्
जिस भाव से हम दान देते हैं या कर्मों का बीज बोते हैं वही विस्तार से पाते हैं। प्रेम
के बीज से प्रेम, घृणा से घृणा और वैर से वैर। दान अर्थात् `देना ही लेना है' –– इस छोटे, परन्तु महान्
क्रान्तिकारी सूत्र में समग्र जीवन की सफलता का राज समाया हुआ है। यही सफलता का वह
सोपान है जिसके द्वारा मानव `दातापन के संस्कार' को जीवन में उपलब्ध कर सकता है।
दान के नियम
सफलता और प्रसन्नता से भरपूर जीवन जीने के लिये समर्पण अर्थात्
आदान-प्रदान का यह शाश्वत और अनादि सिद्धान्त
बड़ा ही सुखद और जीवन में जादूई प्रभाव उत्पन्न करने वाला है। आदान-प्रदान का यह सिद्धान्त जीवन में प्रयोग करने जैसा है। यदि कोई भी इसके अभ्यास
की दिशा में दो-चार कदम आगे बढ़ाये, तो
इसके चमत्कारिक परिणाम निश्चय ही, उसे सुखद आश्चर्य और रोमांच
से भर देंगे।
विराट ब्रह्माण्ड में प्रत्येक चीज़ परिवर्तनशील है। बहुआयामी प्रवाह और गतिशीलता इसका शाश्वत नियम है और इसका मौलिक स्वभाव है। यही इसका धर्म भी है। यदि हम इसके विपुल सम्पदा से अपने जीवन को समृद्ध करना चाहते हैं, तो इसके प्रवाहमान मौलिक स्वभाव को बनाये रखने में अपनी प्रज्ञापूर्ण सहभागिता को भी बनाये रखें। यदि इसके प्रवाह को हम कहीं से भी अवरुद्ध करते हैं तो वही होने वाला है जो एक कुआँ का होता है।
जिस कुएँ को आप प्रतिदिन
प्रयोग में लाते हैं तो स्त्रोत से नये जल का प्रवाह सतत् प्रवाहित होकर निकाले हुए
जल की पुन आपूर्ति कर देता है, परन्तु यदि आप उस जल को उलीचे
नहीं तो नये जल स्त्रोत का प्रवाह अवरुद्ध हो जायेगा और पुराने पानी का सड़ना प्रारम्भ
हो जायेगा।
हमारे मनीषियों का कहना है कि मनुष्य का यह छोटा-सा शरीर विराट ब्रह्माण्डीय प्राण ऊर्जा का प्रतिनिधित्व
करता है अर्थात् यह उसका ही प्रतिमूर्ति है। हमारा शरीर और मन विराट और अविनाशी नाटक
के प्रयोजन वाले मन और अनन्त प्रकृति
से प्रवाहित प्राणमय तत्व जो जीवन अस्तित्व को बनाये रखने के
लिए आवश्यक है, उनके बीच एक सामंजस्यपूर्ण प्रवाह को सदा बनाये
रखता है।
आदान-प्रदान
के इस सामंजस्यपूर्ण सिद्धान्त में रूकावट पैदा करना शरीर में रक्त प्रवाह के रुकने
जैसा है। रुपया अर्थात् करेन्सी। करेन्सी करेन्ट शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है प्रवाह। यदि आप धन को प्रवाहित नहीं होने देंगे उसे तिजोरी
में रोकने लगेंगे तो निश्चय ही उसका प्रवाह जीवन में अवरुद्ध होने लगेगा। क्योंकि जीवन
को स्वाभाविक रूप में प्रसन्न बनाये रखने के लिए इस ऊर्जा की अत्यधिक आवश्यकता है।
आदान-प्रदान के ब्रह्माण्डीय सिद्धान्त के अनुसार धन का प्रवाहित
होते रहना जीवन को समृद्ध और जिन्दादिल बनाये रखने के लिए परम आवश्यक है।
जैसे योग्य बीज, योग्य भूमि पर बोया जाये, उसकी देख-रेख, हवा-पानी की ठीक व्यवस्था
हो तो ही उस बीज से श्रेष्ठ फल प्राप्त होते हैं। ठीक उसी तरह हम दान क्या करते हैं,
कहाँ करते हैं और किस प्रकार करते हैं ö इसी पर
जीवन की श्रेष्ठता, प्रसन्नता या श्रेष्ठ फल आधारित है। हमारे
किसी भी प्रकार के दान के पीछे यह शुभ भाव अवश्य होना चाहिए कि कैसे वह संसार प्रसन्नता
से भरपूर स्वर्णिम सुखमय संसार में बदल जाये और सभी आत्माओं का कल्याण हो, तब ही दान का श्रेष्ठतम फल, प्रसन्नता प्राप्त हो सकेगी।
GOOD DEFINATION OF DAN
ReplyDelete