दान का अर्थ है देने का सामर्थ्य
जब भी दान का प्रश्न उठता है, तो लोग साधारणतय यही सोचते हैं कि धन दान अर्थात्
रुपये-पैसे का दान। रुपया-पैसा ही तो मात्र
धन नहीं है।
धन के और भी कई प्रकार हो सकते हैं। आपके पास ज्ञान हो, अनुभव हो, खुशी हो,
मुस्कुराहट हो, कोई गुण हो, कोई विशेषता हो, स्नेह-सहानुभूति
हो, शारीरिक श्रम हो, जो कुछ भी हो,
वे सभी धन है। वही दान कीजिये, वही मनुष्यात्माओं
के कल्याण में समर्पित कीजिए। देने का भाव भी हो तो वह शुभ भावना, श्रेष्ठ भावना वातावरण में फैलाइये, यह भी महादान है,
ईश्वरीय सेवा है।
इसे ऐसे प्रयोग करें
कई लोग सोचते हैं कि उनके पास रूपये पैसे नहीं हैं या फिर
ऐसी कोई भौतिक सम्पन्नता नहीं है। फिर इस स्वर्णिम सूत्र का उपयोग कर कोई कैसे जीवन
को समृद्ध करें? परन्तु देने के लिए भौतिक
समृद्ध से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है –– भाव की समृद्धि। दूसरे
में उमंग-उत्साह का सम्वर्धन करना उनके लिए शुभ भावना और मंगल
कामना के आशीर्वादों की वर्षा, अनेक तरह के शारीरिक, मानसिक, समय और सम्पर्क-सम्बन्धों
का सहयोग इत्यादि जो भी आप दूसरों की सेवा में समर्पित कर सकते हैं कीजिए। ऐसा करने
से आपके लिए समृद्ध का अवरुद्ध प्रवाह परमात्मा से सहज ही आपकी ओर मुड जायेगा।
अपने अन्दर यह दृढ़ संकल्प धारण करें कि प्रतिदिन कुछ-न-कुछ या जितना ज़्यादा आप कर सकते हैं उतना अपने सम्बन्ध-संपर्क में आए लोगों को अवश्य दें। दान का यह सूक्ष्म सदाव्रत हमेशा चलता रहे। एक फूल, एक प्रेमपूर्ण मुस्कान, दो मीठे बोल, शुभ विचार और प्रार्थना की मौन अभिव्यक्ति बिना किसी अपेक्षा के आपको सदैव के लिए महादानी बना देते रहे हैं।
उच्च विचारों के बीज बोने से जीवन में अनेक उच्चतम विचारों के फल अपने आप लगते हैं।
इसलिए शुभ भाव और विचारों की सौगात लिये बिना आपके पास से कोई भी खाली हाथ वापस नहीं
लौटे। इस विधि को आप अभी से ही प्रयोग करना शुरू करें और परिणाम को देखें, क्या होता है? सफल जीवन का सहज राज इसी कुँजी में समाहित
है।
जैसा हम देते है वैसा ही पाते हैं
पता नहीं यह खबर सच है भी या नहीं, लेकिन इंटरनेट पर यह दिलचस्प खबर आई थी कि इराक
के एक आतंकवादी खेरहनाजोत ने कहीं पर एक पत्र-बम भेजा। उसने उस
पर उचित मूल्य के डाक टिकट नहीं लगाए इसलिए वह पत्र-बम दुबारा
'खै` के पास लौट आया। खै यह भूल गया कि
इस पत्र में उसी ने बम रख छोड़ा है और पत्र को खोल दिया। जोरदार धमाका हुआ और बम खै
के ऊपर ही फट पड़ा। कहते हैं न कि जो दूसरों के लिए गड्डा खोदता है, स्वयं उसी गड्डे में गिर जाता है।
––
साभार `पंजाब केसरी' समाचार-पत्र
इस संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसे बांटने के लिए प्रसाद रूप में कुछ न मिला हो। शुभ भावना और मंगल कामना से भरे संकल्प से आप किसी आत्मा के लिए सोचते हैं या कर्म करते हैं, तो उसका मंगल हो या नहीं भी हो, लेकिन आपका जीवन मंगलमय अवश्य हो जायेगा। क्योंकि यह संकल्प रूपी बीज आपके मन की भूमि पर ही गिरेगा और उसके फल के अधिकारी भी आप ही होंगे। यह प्रक्रिया जीवन में दोनों ही पहलुओं पर आरोपित होती है। सुख देने में भी और दुःख देने में भी।
आपके शुभ संकल्प से किसी का शुभ हो यह बहुत कुछ आपके संकल्प की शक्ति पर और उस आत्मा के कर्म के हिसाब-किताब पर निर्भर है। जैसे झील में एक पत्थर डालने पर जो लहर उत्पन्न होती है, उसका प्रकम्पन झील के दूसरे किनारे तक अवश्य ही पहुँचता है भले ही उसकी चोट नगण्य हो। ठीक उसी प्रकार विश्व के दूसरे छोर तक आपके संकल्प और कर्म की तरंग टकरा कर प्रतिध्वनित हो जाती हैं। हमारी शुभ भावना का दान जाने-अनजाने विश्व की आत्माओं से दुआओं के रूप में लौटकर हमारे ऊपर अवश्य ही बरस जाते हैं।
यह विश्व एक विशाल गुम्बज है, जिसमें आप जो भी संकल्प और कर्म करते वही लौटकर आपके पास आते हैं। जैसे आप कहेंगे यदि `तेरा-तेरा', तो सारा विश्व कहेगा `तेरा-तेरा' और यदि आप कहेंगे `मेरा-मेरा' तो सारा विश्व कहेगा `मेरा-मेरा'। इस तरह जो जितना बाँटेगा, जितना सेवा में लगायेगा वह उन बातों का कई गुणा अधिक प्रसन्नता की प्राप्ति का अनुभव करेगा।
यदि वह उन सभी प्राप्तियों का दान फिर से करे तो यह विनियोग फिर कई
गुणा प्राप्ति के रूप में उसके जीवन से जुड़ती चली जायेंगी। देने और पाने की इस सतत् शृंखला में वह व्यक्ति अनेक तरह की
सम्पन्नता और प्रसन्नता को प्राप्त करता चला जायेगा। दान अर्थात् मेरे पास जो कुछ है
वह सभी का है –– इसका यह अर्थ नहीं कि सबकुछ दे देने से उसके
पास कुछ नहीं रह जायेगा। प्राप्त तो उसे सब-कुछ हो जायेगा लेकिन
`मेरा कुछ नहीं' यह भाव शेष रह जायेगा।
आपके देने के ढंग पर भी प्रसन्नता आधारित है
राजा हरिश्चद्र, महर्षि दधीचि, राजा शिबि, दानवीर कर्ण ऐसे अनेक दानी आत्माओं से भारत का स्वर्णिम इतिहास ज्योतिर्मय है। भारत में दान की एक गहरी परम्परा रही है। आपने कभी इस बात की ओर शायद ध्यान नहीं दिया हो कि यहाँ दान के साथ दक्षिणा का भी रिवाज़ रहा है। दक्षिणा अर्थात् अनुग्रह का भाव। दाता ने जो दिया और लेने वाले ने जो स्वीकार किया, तो दाता इसलिए दक्षिणा देता था कि लेने वाले ने दान लेकर उसे अनुग्रहीत किया। दक्षिणा देना अर्थात् धन्यवाद देना।
दूसरी बात –– दाता जब दान देता था तो प्राप्तकर्त्ता के
सामने रख देता था और कहता था आपको जो चाहिए स्वीकार कीजिये। तो देने का एक ढंग,
एक कला यह भी है कि लेने वाला दान लेकर सम्पन्नता और खुशी का अनुभव करे,
न कि दीनता-हीनता का। देने का श्रेष्ठ ढंग तो यह
ही है कि आप जो भी दें, प्रेम, विनम्र और
निरहंकारी होकर दें। यदि दान देने में थोड़ी भी अहंकार की झलक होगी, स्वार्थ की झलक होगी, इज्जत-प्रतिष्ठा
के कारण दान करते या मज़बूरी से या अपेक्षा के भाव से दान करते हो तो यह दान श्रेष्ठ
फल देने वाला नहीं हो सकेगा। कहीं-कहीं तो यह अमृतफल के बजाए
विषफल बन जाता है।
उदाहरण –– यदि आप किसी को उपदेश या अनुभव का दान देते हैं तो कई बार उपदेशक जीवन में अपने उच्च नैतिक धारणाओं की इतनी बढ़ा-चढ़ाकर चर्चा करते हैं कि सामने वाला या लेने वाला या तो हताश-निराश हो जाता है या फिर क्रोधित हो जाता है। वह हताश होकर या तो यह कहेगा कि भाई साहब, आपके जैसा जीवन जीना अपने वश की बात नहीं है या फिर क्रोधित होकर कहेगा कि क्या इस संसार में आप ही ज्ञानी हैं, आप ही महान् है बाकी हम सबकुछ भी नहीं इत्यादि...। तो देने वाले को बड़े ही न्रम और निर्माण होकर दान करना चाहिए। यह दान देने का श्रेष्ठ ढंग है।
जब आपको कोई कुछ अर्पित करता है तो स्वाभाविक है कि आप भी उसे कुछ समर्पित करने का शुभ भाव अवश्य ही रखेंगे। निस्वार्थ और करुणापूर्ण लेने-देने का यह समर्पण-सिद्धान्त उतना ही नहीं प्राप्त कराता, परन्तु उससे भी अनन्त गुणा अधिक कर वापिस लौटाता है। जैसे एक छोटे से वट बीज से विशाल वट-वृक्ष बन जाता है और उसमें अनंत बीज की सम्भावनायें प्रगट होती हैं। उस छोटे से बीज को योग्य भूमि में डालने और उसकी प्रारम्भिक संभाल मात्र से ही प्रकृति की ऊर्जा का विराट सहयोग उस एक बीज को अनन्त गुणा अधिक होने की सम्भावना को बढ़ा देता है। क्या आप बिना इस अदृश्य सहयोग के उस एक नन्हें से बीज में इतनी सम्भावनाओं को पैदा कर सकते हैं –– नहीं, यही समर्पण का सिद्धान्त है।
यदि किसी मज़बूरी या हद के स्वार्थवश किसी को कुछ देते हैं तो आप इस सिद्धान्त का मजाक
उड़ा रहे हैं। आपको कुछ भी प्रतिदान मिलने वाला नहीं। मंगलकारिणी प्रसन्नता का सुखद
अहसास तो सदैव ऐसी भावना में ही समाहित है कि आदान-प्रदान के
इस कार्य में दोनों ही पक्ष गौरवान्वित अनुभव करें। देने में प्रसन्नता का यह भाव आपमें
सृजनात्मक ऊर्जा को पैदा करता रहेगा, जो सफलता के कारक तत्व हैं।
जैसे श्वास शरीर और आत्मा के बीच पुल का कार्य करता है, उसी प्रकार
ब्रह्माण्ड में व्याप्त अनन्त प्रकृति बुद्धिमत्ता पूर्ण ढंग से अपनी बहुआयामी ऊर्जा
तरंगें मनुष्य के मन और शरीर में सम्प्रेषित कर सेतु का कार्य सम्पन्न करता रहता है।