प्रसन्नता का आधार –– नि:स्वार्थ दान (Part 6 : L A S T)

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(भाग 5 का बाकि)

अपेक्षा रहित अकारण दान

एक कहानी है –– एक बगीचे के मालिक ने अपने बगीचे में कुछ काम करवाने के लिए मजदूरों को बुलाया, उसमें कुछ मजदूर सबेरे से आये थे कुछ दोपहर से काम पर आये और कुछ शाम को काम पर आये, परन्तु बगीचे के मालिक ने अंत में सबको बराबर की मजदूरी दी। इस पर सबेरे से आने वाले मजदूरों ने एतराज़ उठाया तो मालिक ने उनको जवाब दिया कि आपको जितनी मजदूरी मिलनी चाहिए थी उतनी मिली या नहीं? तो उन्होंने जवाब दिया कि मिला परन्तु... मालिक ने कहा, ``आपको जितनी मिलनी चाहिए उतनी मैंने दी, परन्तु मेरे पास पर्याप्त था इसलिए मैंने सबको समान दिया क्योंकि देना मेरे आनंद का, मेरी प्रसन्नता का विषय है''

जीवन में जो ताज़गी, जो प्रफुल्लता बाँटकर मिलती वह और किसी तरह कहीं भी नहीं। हमारे पास बहुत है हम इसलिए नहीं देते कि कोई लेने के बाद धन्यवाद दें। नहीं, इतनी भी अपेक्षा नहीं हो।

जीवन के किसी भी क्षेत्र में यदि आप चाहते हैं कि आपका कोई भी प्रतियोगी नहीं हो, आप सदा सफलता प्राप्त करें इसकेलिए बिना अपेक्षा के प्रतिदान दें अर्थात् आपने जितना पाया है उससे थोड़ा ज़्यादा दें। महापुरुषों ने जन-कल्याण के लिए सबकुछ दे दिया और उनका नाम इतिहास में अमर हो गया। यदि आप किसी के लिए कुछ करते हैं और बदले में कुछ पाते हैं, तो कृपया खुदा के लिए ही सही, आप उसके लिए ईमानदारी से थोड़ा ज़्यादा करें। आप देखेंगे इतने से ही आप इतना ज़्यादा पा लेंगे कि इसकी कोई तुलना नहीं। जैसे सम्मान प्यार, ईमानदारी, विश्वास, सहयोग और आत्म-विश्वास का तमगा जो आपके थोड़ा ज़्यादा करने से कई गुणा ज़्यादा है। जैसे 5000 रुपये के लिए आठ घण्टा कार्य अनिवार्य हो और आपने साढ़े आठ घण्टा से 9 घण्टा कार्य किया तो इसे कहेंगे पाने से थोड़ा अधिक करना, परन्तु आज लोग आवश्यकता से थोड़ा कम करके इन अमूल्य तोहफे से वंचित हो जाते हैं। आलौकिक सम्पदा से सम्पन्न व्यक्ति जब भी दान करेगा तो लेने वाले को धन्यवाद देगा क्योंक प्रभु-प्राप्त सम्पदा से सेवा करने का एक सुनहरा मौका उस व्यक्ति ने दिया। लेने वाले ने लेकर उस व्यक्ति के लिए अनन्त-गुणा प्राप्ति के द्वार खोल दिये। लेकिन जब भी कोई बिना इस उद्दान भाव के दान करेगा, उसमें वह लेने वाले से धन्यवाद की अपेक्षा अवश्य ही रखेगा। कई लोग कहते हैं दान से बड़ा धर्म नहीं लेकिन मेरा मानना है कि जब तक जीवन धर्ममय अर्थात् उच्चतर मानवीय गुणों से सम्पन्न नहीं हो जाता है तब तक यथार्थ दान संभव नहीं है। कोई भी दान बिना उच्च मानवीय गुणों की धारणा के अपेक्षित नहीं।

दान का मूल –– प्रेम

प्रेम का अर्थ सब मेरे लिए है, मैं सबके लिए हूँ। इसलिए विश्व में कोई भी यदि दुःखी है तो यह मेरी ज़िम्मेवारी है कि उसके आँसूओं को कैसे पोंछा जाये। सदा यह भावना हो कि समस्त ही मेरा है सभी मेरे से जुड़े हैं। देखिये प्रकृति हमारे लिए क्या नहीं करती है यदि आज वह प्रदूषित है तो हमारी ज़िम्मेवारी है उसे अपने शुद्ध संकल्पों का दान दें, शुद्धि और पावन करना। आज विज्ञान ने इस बात को सिद्ध कर दिया है कि प्रकृति का जगत भी मनुष्यात्माओं के संकल्पों से प्रभावित होता है। तो प्रेम अर्थात् अद्वेत की प्रतीति। दो नहीं, हम सभी एक ही परमात्मा की संतान हैं। प्रेम विराट भाव का वह मंगल द्वार खोलता है, जिसके द्वारा मानव देश, धर्म, जाति और भाषा आदि की संकीर्ण स्थिति से ऊपर हिमालय की वादियों से भी कहीं अधिक उदार, निस्वार्थ दान की स्थिति में पहुँच जाता है। पवित्र प्रेम के पास केवल एक ही भाषा है –– हँसते-हँसाते सर्वस्व दे देने की। वह दूसरे को लूटता नहीं है लेकिन अपना सब-कुछ लुटा देता है। प्रेम से निकले दान के इस निर्मल अमृत निर्झर में जिसने गोता लगाकर इस अमृतरस का पान कर लिया उसके आनंद और प्रसन्नता की उपलब्धि का क्या कहना।

इसलिए दान देने से पहले दान के मूल प्रेम को जानें। दान जब उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर किया जाए तो फिर प्रसन्नता की मंज़िल दूर नहीं। सुख-शान्ति की प्यासी आत्माओं पर प्राप्ति के बादल बन खूब रिमझिम बरसिये ताकि मरुभूमि बनी आत्माओं के जीवन में फिर हरियाली छा जाये। जीवन में खुशियों का बसंत आ जाये। मनमोर प्राप्तियों से विभोर आनंद मगन नाचने लगे। स्वाति के बूँद की तरह आपका प्रेमपूर्ण दान लोगों के मन रूपी सीप में अनगिनत प्राप्तियों के मोती बन जायें। यही है दान में –– प्रसन्नता का सहज राज। (समाप्त)

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।

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