क्षमा
और सहानुभूति
सहानुभूति एक ऐसी विश्वव्यापी भाषा है
जिसको सब प्राणी समझते हैं।
–– जेस्म एलन
दूसरों पर दया करने वाला अपने लिए सहानुभूति
पैदा करता है जोव्यक्ति दया करने का अभ्यस्त नहीं वह सहानुभूति पाने का अधिकारी नहीं है।
–– अज्ञात
सहानुभूति का अर्थ है, दूसरों के कष्ट और पीड़ा से प्रतिसंवेदित हो जाना और दूसरों के प्रति सहानुभूति
रखना। इसका तात्पर्य है उसके प्रति संवेदना से उत्पन्न करुणा और दया से द्रवित हो उसको
उस पीड़ा से मुक्त करने की भावना के प्रयत्नशील हो जाना। अन्य से सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार
रखने या उसे सहानुभूति देने के मार्ग में दो महत्त्वपूर्ण अवरोध हैं ––
1. पूर्वाग्रह
: इसका अर्थ है किसी भी बात
को अपने पुराने नजरिये से देखना, अतीत में दूसरे द्वारा अपने
लिए या अन्य के लिए किये गये घृणित कर्म या दुर्व्यवहार से उत्पन्न मान्यता कि वह दुष्ट-प्रवृत्ति का व्यक्ति था और अब भी वही है। इसी भावना से उसे देखना या सोचना
पूर्वग्रह कहलाता है। और जब भी कोई पूर्वग्रहों से ग्रसित होता है उसे अतीत की वही
घटना स्मृति में पुन पुन उसके प्रति घृणा उत्पन्न करती रहती है। फलत उसके साथ सहानुभूति
का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है।
2. दुर्भावना
: किसी कारण से अन्य के प्रति
नापसंदी अरुचि, ईर्ष्या-क्रोधवश दुर्भावना
पूर्ण विचार भी मनुष्य को दूसरों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार नहीं करने देते हैं।
उपरोक्त दोनों दृष्टि ही दोषपूर्ण है क्योंकि पूर्वाग्रह के कारण जिसे आप पापी समझ
रहे हैं, हो सकता है वह आज पुण्य आत्मा बन गया हो। हो सकता है
पूर्व के वे कर्म जिसे करना आप ठीक नहीं समझ रहे थे वह आपकी निजी मान्यता रही हो और
आप उसे दूसरे पर थोपकर देख रहे हों। याद रखिये, यदि आप पूर्वाग्रह
से ग्रसित हैं तो आप दूसरे की बुराई और पाप का चिन्तन अभी भी कर रहे हैं और जो पाप
की सोचता और उससे लड़ता है वह खुद को उसी दल-दल में फंसता हुआ
महसूस करता है। दुर्भावना के साथ भी कुछ ऐसा ही है। इसलिए दोनों ही अवरोधों को जीवन
से हटाकर, मनुष्य को महान् सुखमय सहानुभूति पूर्ण भाव के विशाल
साम्राज्य में प्रवेश कर जाना चाहिए।
सहानुभूति के साम्राज्य में कैसे प्रवेश करें?
मैं नित्य यह अनुभव करता हूँ कि मेरे भीतर
और बाहरी जीवन के निर्माण में कितने अनगिनत व्यक्तियों के श्रम का हाथ रहा है और इस
अनुभूति से उद्दीप्त मेरा अन्तकरण कितना छटपटाता है कि मैं कम-से-कम इतना तो इस विश्व
को दे सकूँ जितना कि अभी तक लिया है।
–– आइन्स्टीन
आइन्स्टीन द्वारा कही गई उपरोक्त पंक्ति में मानवता के लिए प्रेम और सहानुभूति के हृदय-स्पर्शी भावों से सुन्दर व्याख्या और क्या हो सकती है। प्रेम और सहानुभूति से बड़ी पूजा-अर्चना क्या? साधना-आराधना क्या? जगत में निस्वार्थभाव से सेवा जैसा कोई मांगलिक कर्म नहीं और सौहार्दपूर्ण सहानुभूति से श्रेष्ठ कोई भी लावण्यता नहीं। जिनके कर कमल जनमंगल की दिशा में समर्पित हैं, नैन प्रेम और सहानुभूति के कल्याणभाव से गीले है तथा वाणी मनोरम, उससे अधिक स्नेहिल, दिव्य और सहानुभूतिशील मनुष्य और कौन हो सकता है? जब कभी भी इस जगत में दिव्यता का अवतरण हुआ, चेतना का सूर्य संसार में प्रगटा, तक्षण वह दुःखी और आश्रुपूरित नैनों को पोछने के लिए समाज में दौड़ पड़ा। इसलिए इस दुनिया में सहानुभूतियुक्त सेवा से बढ़कर न तो कोई दूसरा धर्म है और न ही कोई आनन्द।
जैसे ही कोई महामानव आनन्द से आप्लावित होता है, वह समस्त मानवता
के लिए स्नेह, करुणा और सहानुभूति से भर जाता है। क्योंकि आनन्द
का स्वभाव है बाँटना और फैलना, जबकि दुःख का स्वभाव है कंजूसी
और सिकुड़ना। दूसरों के दुःख से द्रवित हृदय सहानुभूति से आनन्दित हो उसकी आवश्यकता
को पूरा करने के शुभ भाव और श्रेष्ठ कर्म से प्रयत्नशील हो उठता है। इसलिए दूसरों पर
दया पैदा करने वाला अपने लिए स्वत ही सहानुभूति पैदा कर लेता है।
जो व्यक्ति दया करने का अभ्यस्त नहीं, वह सहानुभूति पाने का अधिकारी भी नहीं है।
–– अज्ञात
सहानुभूति को खोजती लाखों निगाहें
जहाँ आज लाखों नयन गम और पीड़ा में नम हैं, करोड़ों जीवन अभाव से त्रस्त और शोक से संतप्त
हैं, अनगिनत पाप, दुर्व्यसन और बुराईयों
के दुश्चक्र से मुक्ति के लिए आकुल-व्याकुल हैं। ऐसे में सहानुभूतिशील
मनुष्यों का तकाजा है, उनका परम पुनीत कर्त्तव्य है कि वे आगे
आयें और उन अभावग्रस्त जनों के कष्टों को मिटाने में अपना हाथ बटाएं। उनके गम में शरीक
हों और अपनी हार्दिक संवेदना से उनमें उमंग-उत्साह की एक सुखद
आबोहवा पैदा करें। कीमती भेंट से भी कीमती है किसी के सानिध्य में सह्रदयता,
सहानुभूति और प्रेम से बिताए गये कुछ पल। इस कार्य के लिये दूसरों में
भी यह प्रेरणा जगायें कि वे भी इस श्रेष्ठ कार्य में आपका सहयोगी बनें। यह अन्तर जगत
एक अद्भुत नियम से संचालित है, यदि आप दूसरों के प्रति स्नेह
और सहानुभूति रखते हैं तो दूसरों से भी वह सहज ही आपको मिल जायेगी।
सहानुभूति से ही सेवा भाव जागृत होते हैं अच्छे से अच्छे
होकर चलना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन
जिसके साथ कोई चल नहीं सकता उसके साथ चल कर दिखाना ही सबसे बड़ी कला है।
वे जो अच्छे हैं, समर्थ, महान् और पुण्यशाली हैं उनके लिए तो प्रेम, सम्मान और सहानुभूति सभी को होती ही है। यह कोई अद्भुत घटना नहीं है। कदाचित आप उनके प्रति भी सहानुभूति रख पाते जो आपके प्रति अपमान, दुष्टता और शत्रुता भरा भाव और व्यवहार करते हैं। पापी, गरीब और पद-दलितों के प्रति मृत्यु-पर्यन्त घृणा और प्रतिशोध के बदले प्रेम, करुणा और क्षमाभाव के साथ सहानुभूति रखें तो सम्पूर्ण मानवता और जगत का कितना मंगल हो जाये।
ध्यान रहे,
दूसरों के प्रति सहानुभूति रखने से हम उसे कुछ देते हैं, ऐसा मात्र हमारी ज़िम्मेदारी है इसलिए नहीं, परन्तु वास्तव
में ऐसे लोगों को आपके सहानुभूति की ज़रूरत भी है। दुनिया तो अज्ञानतावश उसे बुरा व्यक्ति
समझती है फिर वह उसके प्रति करुणा पूर्ण कैसे हो सकती है? आने
वाली पीढ़ी उन्हें ही याद रखेगी, जिन्होंने ऐसे ज़रूरतमन्द लोगों
को समय पर अपने प्रेम और सहानुभूति की शीतल बौछारों से उनके मरुभूमि बनी जीवन की प्यास
बुझाकर, अभाव मिटा सुरभित पुष्पों का मधुवन बना दिया हो। महान्
मदर टेरेसा, राष्ट्रपिता बापू प्रेम और सहानुभूति की जीवन्त प्रतिमाएँ
थी, जो आने वाली पीढ़ी के लिए बेमिसाल प्रेरणायें छोड़ गये। क्या
हम उनसे ऐसा कुछ सीख सकते हैं?
जब भी आप किसी की भावना की कद्र करते हैं, उसके विचारों को धैर्य से सुनते हैं और
उसे अहमियत देते हैं, तो स्वाभाविक रूप से आपके प्रति उसका स्नेह
और सम्मान का भाव जागृत हो ही जाता है। जब भी एक-दूसरे के प्रति
परस्पर स्नेह भावना प्रवाहित होती है, तक्षण लोग एक-दूसरे के हृदय में प्रवेश कर जाते हैं। हृदय के इसी खुले द्वार से सहानुभूतिशील
व्यक्ति दूसरे के अन्दर प्रवेश कर उसके साथ एकात्म स्थापित कर सकता है।