(भाग 1 का बाकि) जब एक बार कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के साथ अपनी अभेदता
अनुभव कर लेता है, किसी दूसरे में मानो विलीन
हो जाता है, तब वह प्रत्येक के साथ अपनी एकता का अनुभव करने लगता
है। चिरस्थाई एकता वहीं उत्पन्न हो सकती है, जहाँ अंतकरण एक हो।
–– स्वामी रामतीर्थ
किसी भी मनुष्य की वास्तविक अन्तर स्थिति को जाने बिना, न्याय और पक्षपात रहित दृष्टि असम्भव है,
यही एकान्तभाव दूसरे के प्रति महान् सहानुभूति का ज़रोखा खोल देती है।
जहाँ से निस्वार्थ, दिव्य प्रेम और आनन्द की शुद्धि शीतल समीर
का परस्पर आदान-प्रदान प्रारम्भ हो जाता है और उसमें घुल जाती
है, दया, प्रेम और सम्मान की खुशबू। धिक्कार,
घृणा और क्रोध की विषैली वायु तो वहाँ से कब की जा चुकी होती है।
विराट हृदय और विशाल बुद्धि का क्षेत्र जितना ही व्यापक
होगा, सहानुभूति का क्षेत्र भी उतना ही फैला हुआ
होगा और उसी सीमा तक उसके जीवन में प्रफुल्लता का आलोक फैला हुआ होगा तथा उसके जीवन
में सफलता का क्षेत्र भी उतना ही विराट होगा। आध्यात्म और विज्ञान भी आज इसी निष्कर्ष
पर पहुँच रहे हैं कि यह विराट ब्रह्माण्ड, प्राणी जगत और प्रकृति
में परस्पर अद्भुत समस्वरता, संतुलन, एकता
और तालबद्धता है। जहाँ आत्मा-आत्मा भाई-भाई है वहीं प्रकृति और प्राणीमात्र के लिए एक साथ वसुधैव-कुटुम्बकम के परम प्रेमपूर्ण एकत्व भाव में विलक्षण अन्तर सम्बन्ध स्थापित
है। इसी स्वार्थहीन सच्ची सहानुभूति में मनुष्य उस परम रहस्यमय, अकाट्य, न्यायशील और ध्रुव-सत्य
नियम का साक्षात्कार कर लेता है।
इसलिए सहानुभूति का एक पहलू है सभी के प्रति दया, करुणा और अहिंसा का भाव और उसका दूसरा पहलू
है –– अनावश्यक रूप से कमज़ोर को नहीं सताना तथा उनके
प्रति निर्दयतापूर्ण कठोर व्यवहार, प्रतिशोध और क्रोध का त्याग
कर देना। उसका एक पहलू यह भी है कि किसी की उन्नति में, उसकी
सफलता में अपनी प्रसन्नता का भाव रखना, न कि इर्ष्या-द्वेष का।
सहानुभूति
बेशर्त हो, क्या पात्र,
क्या अपात्र
सभी के प्रति सहानुभूति रखना, यह मानवता का गौरव है तथा सहृदयता का आधार स्तम्भ।
किसी बीमार को फूलों भरा गुलदस्ता भेंट कर आना, यह तो लोक व्यवहार
की शालीनता है और इसे करना भी चाहिए, परन्तु उसके लिए आवश्यक
फल-फूल और औषधि के इंतजाम में संलग्न हो जाना, उसके प्रति उससे भी बड़ी सच्ची सहानुभूति है।
कर्मों के परिणाम का पूर्वाबोध नहीं होने के कारण या स्वयं
के कड़े संस्कारों के वशीभूत होकर या फिर जीवन में पर्याप्त ज्ञानमय सजगता के अभाव
से मनुष्य पाप कर्म कर बैठता है। वर्तमान के पुण्यात्मा हो सकता है अतीत के पापात्मा
रहे होंगे? फिर आज के पापात्मा भविष्य
में पुण्यात्मा क्यों नहीं बन सकता? बन सकता है। बस आपको एक आत्मीयभरा
सहानुभूति का पूर्ण संस्पर्श चाहिए। फिर देखिए, उसके आशा और आत्म-विश्वास से भरा कदम कैसे जीवन के महान् ध्येय की ओर अपने आप उठने लगता है?
जीवन बदलने में देर ही कितनी लगती है।
चाहे कैसा भी कोई व्यक्ति क्यों न हो, चाहे वह तमोगुणी हो चाहे सतोगुणी, सम्पर्क में आये, लेकिन सभी के प्रति आपका शुभचिन्तक
अर्थात् अपकारियों पर भी उपकार करने का भाव बना रहना चाहिए। अगर कोई कुछ गलत व्यवहार
आपके साथ करता है फिर भी यह रहम भाव रखकर कि इसका दोष नहीं है, यह इस समय अपनी कमज़ोरियों के वश है, उसका साथ देना या
उसे परिवर्तन में मदद करनी चाहिए। उसके प्रति घृणा भाव का त्याग कर देना चाहिए। जैसे
कहीं आग लगी हो तो जो आग बुझाने वाले हैं वे आग अवश्य बुझाते हैं चाहें उसके लिए कितनी
ही मुश्किलों का सामना क्यों न करना पड़े। इसी प्रकार रहम और सहानुभूति रखने वाली आत्मा
का यह कर्त्तव्य हो जाता है। कि कैसी भी अवगुणी, कड़े संस्कार
वाली, कम बुद्धि, पत्थर बुद्धियाँ या ग्लानि
करने वाली आत्मा हो, उसके प्रति शुभ भाव रख सहानुभूति बनाये रखें।
महान् आत्मा वही है, जो बिना किसी अपेक्षा के दूसरों के प्रति सहानुभूति रख उनके कष्टों को बुराईयों
को अपनी पीड़ा समझ उसे दूर करने में सतत् संलग्न रहता हो। वे दूसरों के पापपूर्ण कृत्यों
को देख घृणा नहीं करता अपितु उनके प्रति यह शुभ भाव रखता है कि जैसे मैं इन बुराईयों
से छूट गया हूँ वैसे ही वह दिन दूर नहीं जब यह भी उन सभी बातों से निसंदेह मुक्ति पा
ही लेगा। मेरी तरह आज नहीं तो कल इसकी जीवन बगिया में भी प्रेम, सुख और शान्ति के सुमन अवश्य ही खिलेंगे। जैसे प्रकृति पक्ष मुक्त होकर अपना
अनउदात्त सभी को उपहार स्वरूप मुफ्त ही बाँटती है वैस ही श्रेष्ठ पुरुष सदा स्नेह और
सहानुभूति पूर्ण सहयोग देने में पात्र-कुपात्र, मित्र-शत्रु आदि भावों का विचार कदापि नहीं करते। उन्हें
तो इस विराट सृष्टि-नाटक में नियति की पग ध्वनि सर्वत्र सुनाई
देती है कि जो होना है, वह अवश्यम्भावी है और कल्याणकारी भी।
क्योंकि उसका सूत्रधार, सर्वश्रेष्ठ नियति है। फिर क्यों न मुक्त-हस्त से, वरदानों भरे मृदुल स्पर्श से, दूसरों को भरपूर कर दिया जाये। ऐसे लोगों को सदैव इन शब्दों का ध्यान रखना
चाहिए।
w प्रभु करे
आपके ऐसे स्वर्गीय संस्पर्श से सभी कृत-कृत्य हो जायें,
प्रभु करे, प्रेम, सेवा और
सहानुभूति आपके जीवन का परम ध्येय बन जाए।
w प्रभु करे आप की समस्त पूजा-अर्चना, ध्यान-धारणा, साधना-आराधना इसी ध्येय
के चोरों ओर समर्पित हो जाए।
w प्रभु करे, आपका जीवन आनन्द से भर जाए और सत्य के निकट जा जाए, ताकि
आपके कोमल हृदय में हृदयहीन विचार कदापि प्रवेश ना कर सकें।
w प्रभु करे आपका जीवन श्रीयश और सफलता में समृद्ध हो जाए
ताकि आपका वरदानी जीवन औरों के कल्याण और प्रेरणा का स्त्रोत बने। बस इसके लिए छोटा-सा सहानुभूति भरा प्रयास आवश्यक है।
दोष दर्शन
–– सहानुभूति
में बाधक
दूसरों का दोष देखना आसान है किन्तु अपना दोष देखना कठिन
है। लोग दूसरों के दोष को भूसे के समान फटकारते फिरते हैं परन्तु अपने दोष को इस तरह
छुपात हैं जैसे चतुर जुआरी हारने वाले पासे को छिपा लेता है।
–– गौतम बुद्ध
निन्यानवे प्रतिशत अवस्थाओं में कोई भी मनुष्य स्वयं को
दोषी नहीं ठहराता, चाहे उसने कितनी ही भारी
भूल क्यों न की हो।
–– डेल कारनेगी
जब कभी मुझे दोष देखने की इच्छा है तो मैं स्वयं से आरम्भ
करता हूँ और इससे आगे नहीं बढ़ा पाता।
–– डेविड ग्रेसन शेष भाग - 3