(भाग 2 का बाकि) बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आज हम सभी की आँखें इतनी दोषग्रस्त
हैं कि दूसरे की बुराई की चर्चा कर बीभत्स आनन्द मनाते हैं और जीवन को अनजाने में बहुत
से दुःखों की इन बुरी आदतों से भर लेते हैं। दूसरों के न दिखाई देने वाले दोष भी लोग
ढूँढ़ निकालने में अत्यन्त प्रवीण हैं। काश! यह प्रवीणता वे अपने दोषों के प्रति दिखा पाते तो यह संसार कितना सुखद होता।
प्रश्न उठता है कि दोष दर्शन जब इतना नुकसानकारी है फिर भी लोग दिन-रात इस दुःखदायी कृत्य को करने में विवश क्यों हैं? आईए,
कुछ तथ्यों का अवलोकन करते हैं। प्राय मानवीय कर्मों का अभिभाव दो तरह
से होता है ––
(क) ज्ञान से निकले कर्म जिसमें कर्त्ता भाव गिर
जाता है।
(ख) अज्ञान से निकले कर्म-इसमें
कर्त्ता और अहंकार दोनों ही संयुक्त हो जाते हैं। अज्ञान से निकले कर्म भी दो प्रकार
के होते हैं।
w ऐसे कर्म
जिसे करते समय यह पता ही नहीं चलता है कि इसे नहीं करना चाहिए अर्थात् इस कर्म का परिणाम
कष्टकारी है –– इस वोध का अभाव।
w दूसरे प्रकार
के वे कर्म हैं, जिसको नहीं करना चाहिए।
इसका भ्रम पूर्ण ज्ञान होता है अर्थात् जानने का भ्रम होता
है कि हम इसके दोनों ही परिणामों से अवगत हैं, परन्तु वास्तविकता इससे भिन्न है। हमें उन कर्मों के विषय में भी अज्ञानता
ही होती है। अनुभव के तौर पर हम उसके सूक्ष्म परिणामों से अवगत नहीं हैं। बस,
सुनी सुनाई मान्यता कि यह अच्छा है, यह बुरा है
इसी आधार पर कर्म को भी तात्कालिक इद्रिय तृप्ति या अन्य सुख लाभ से आसक्त हो करके
बाद में दुःख उठाते रहते हैं।
कर्म के सही ज्ञान के प्रति मनुष्य की समझ धुंधली है
मनुष्य को सही अर्थों में यह पता ही नहीं है कि उसे क्या
करना चाहिए और क्या नहीं। कोई भी व्यक्ति प्रज्वलित अग्नि में कभी भी हाथ नहीं डालता
है। क्योंकि उसे पता है कि इस कृत्य से उसका हाथ जल जायेगा और उसे भयंकर पीड़ा का सामना
करना पड़ेगा। वह कभी भी जान बूझकर आग में हाथ नहीं डालेगा। इसे हम कहेंगे आग के प्रति
वास्तविक ज्ञान, इसे कहेंगे ज्ञान और आचरण
में बिल्कुल समानता। ज्ञान और आचरण में असमानता के दूसरे पहलू को देखिए। सभी जानते
हैं कि क्रोध एक प्रचण्ड ज्वाला है, जो हमारे जीवन की सुख-शांति को भस्म कर देती है, फिर भी आदमी इस दुर्दान्त
शत्रु क्रोध रूपी आवेग से ग्रसित हो अनेक दुष्कर्म करता रहता है। चाहे वह आदत या संस्कार
वश हो या फिर अन्य बाह्य कारणों का भ्रमपूर्ण बहाना। इसी तरह दुर्व्यसन, जो दूसरी बुरी आदत है और जिसके वशीभूत इंसान अपना जीवन तक तबाह कर लेता है।
चाहे वह दुर्व्यसन शराब, भाँग, तम्बाकू,
एल.एस.डी., सिगरेट, मरजुआन, हेरोइन या ब्राउन
शुगर हो, चाहे वह दुर्गुण, क्रोध,
काम, लोभ, स्वार्थ तथा अहंकार
हो, परन्तु लोगों का पारिवारिक या सामाजिक जीवन उपरोक्त कारणों
से नष्ट अवश्य हो रहा है। किसी भी दुर्गुण या दुर्व्यसन के अधीन मनुष्य जो भी अनुचित
कर्म करता है वह उसके दूरगामी भयंकर परिणामों के ज्ञान से बिलकुल अनभिज्ञ है। भले ही
वह जानने के या ज्ञान के पक्ष में कितनी ही सफाई क्यों न दें, परन्तु तथ्य यही है कि वह उस ज्ञान को ठीक से नहीं जानता है।
जीवन को श्रेष्ठता की ऊँचाई तक ले जाने वाली वे समस्त कल्याणकारी शिक्षाएँ और दिव्य ज्ञान मानव के आचरण में उतनी ही सहजता से क्यों नहीं प्रवेश कर जाते हैं? क्यों नहीं इंसान उसे अपने जीवन में उतारकर सुखी बन जाता? क्योंकि वह उससे होने वाले नुकसान के प्रति पूर्णत अनभिज्ञ होता है या उस बात को वह आधी अधूरी ही समझ पाता है। कई बार उसे अपने ही अंतकरण से उठे सच और झूठ के मन्द स्वर की समझ या दूसरे द्वारा कहे जाने पर कि यह अनुचित है उसे महसूस तो होता है, परन्तु वह धुंधली समझ स्पष्ट होने के बजाये फिर से धीरे-धीरे विलीन हो जाती है। शेष भाग - 4