जीवन का परम सौन्दर्य –– प्रेम (Part 6)

5 minute read
0

 

 (भाग 5 का बाकि) ________

प्रेम-मार्ग में बाधक तत्व

साधारणत प्रेम के मार्ग में तीन बाधक तत्व हैं। देह, देह के सम्बन्ध और देह के पदार्थ। लेकिन परमात्मा स्नेह इन तीन मंजली इमारत को सहज ही पार करा देता है। परमात्मा प्रेम इस संसार में एकमात्र ऐसा तत्व है, जो इस संसार के पार से आती है। एक ऐसा स्त्रोत जो संसार के भीतर भी है और संसार से बाहर ले जाने वाला भी है। परमात्मा-प्यार वह पारलौकिक किरण है, जो पृथ्वी पर प्रभुलोक की खबर देता है। जिस किरण के सहारे हम पृथ्वी पर छाए, अज्ञान-अंधकार से दूर ज्ञान-सूर्य तक पहुँच जाते हैं। कभी आपने अपने जीवन में देखा या अनुभव किया हो कि जब भी किसी के सानिध्य में निस्वार्थ प्रेम का झरना बहा हो, तो आपको ऐसा लगा होगा कि आपके बीच से कोई दीवार गिर गई हो, कोई फासला मिट गया हो। चाहे वह सानिध्य किसी भी सम्बन्ध से हो।

बहुत दिनों के बाद दो दोस्तों का मिलन हो या दो प्रेमियों का मिलन हो। सब सीमाएं धूमिल हो जातीं हैं, सब भेद समाप्त हो जाते हैं। दोनों एक-दूसरे के प्यार में ऐसे समाहित हो जाते हैं कि यह पता लगाना भी मुश्किल हो जाता कि कौन, कौन है। उसमें तो समय का कोई बोध शेष रहता है, स्थान की याद रहती है और ना ही संसार के किसी वस्तु या व्यक्ति की याद रह जाती है। घण्टों मिलने के बाद भी दो प्रेमी आपस में यही कहते हैं अरे, कितना समय बीत गया लेकिन इसका पता ही नहीं चला।

मोहब्बत में मेहनत नहीं इसलिए प्रेम अभेद्य और अभेद दोनों एक साथ है। जब साकार शरीरधारी के मिलन में, प्रेम के अल्पकाल का ही सही, इतना अधिक सुख मिलता है, तो ज़रा सोचिए! निराकार आत्मा और परमात्मा के प्रेम पूर्ण मिलन में कितना सुख बरसता होगा! महान् सुख के इस क्षण में सब सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। दो एक हो जाते हैं इसलिए प्रेम का अर्थ है –– दूसरा अपने जैसा मालूम पड़ने लग जाए। अगर दूसरा, दूसरे जैसा मालूम पड़ने लगता है तो `काम' या मोह है। अगर अपने जैसा मालूम पड़ता है तो फिर `प्रेम'

रसायनिक प्रभाव : मस्तिष्क में हाइपोथैलेमस वह केद्र है जहाँ से प्रेम और अन्य अभिरुचियाँ इच्छा के रूप में बाहर निकलती हैं। प्रेम से व्यक्ति में उमंग-उत्साह जाता है। रक्त में अंतपवी ग्रंथियों से डोपामीन, नारएपीनोनीन और फिलाइल एथिलामाईन रसायनिक द्रव्य मिल जाते हैं। फिलाइल एथिलामईन के पव की प्रक्रिया लम्बे समय तक चलती रहे तो शरीर में  उपरोक्त हारमोन्स के साथ एम्फेटामाइन की उत्पनि स्वाभाविक रूप से होने लगती है और मनुष्य प्रसन्नताभरा जीवन जीने लगता है।

प्रेम एक कला है, इसे सीखना होगा

प्रेम एक कला है। जीवन में सम्मान और प्रेम कौन नहीं चाहता? यही तो जीवन में प्रसन्नता और उमंग-उत्साह का आधार है। यदि आप प्रेम और सम्मान पाना चाहते हैं तो उसके योग्य बनना परम आवश्यक है। क्योंकि वे लोग जो दूसरों द्वारा उपेक्षा, नापसंदी और अपमान के शिकार होते हैं, उसका कारण मात्र इतना ही है कि उन्हें अपनी अयोग्यता का अहसास नहीं। प्रेम पाने के योग्य बनने के लिए यह आवश्यक है।

आपका व्यवहार शिष्ट और सम्मान पूर्ण हो। वाणी में मिठास हो। मुस्कान भरा चेहरा हो, निस्वार्थ भाव से सहयोग की भावना हो तथा अपने कार्य के प्रति समर्पण और ईमानदारी है तो आप प्रेम पाने योग्य अवश्य हो जायेंगे।

दुनिया में यदि कुछ करने जैसा है तो वह है प्रेम। यदि कुछ देने जैसा है तो वह है प्रेम। प्रेम विज्ञापन नहीं अपितु मौन सम्प्रेषण है। इसलिए प्रेम कुर्बानी माँगता है। धन देने से, तन देने से, मन देने से, यश देने से काम नहीं चलेगा। प्रेमी को प्रेम के लिए अपने को पूरा ही समर्पित करना पड़ेगा और जिसने अपना पूरा दे दिया वह मालिक हो गया। प्रेम हमारी कीमत से मिलता है। इसलिए दुनिया में भी विनाशी प्यार के लिए लोग जीवन तक को कुर्बान कर देते हैं। कहते हैं हम अगले जन्म में मिलेंगे। इसलिए प्रेम तो जीवन से भी बड़ी घटना है।

जो देता है वो पाता है। जीवन प्रेमपूर्ण हो जाए, इसके लिए प्रेम देना सीखें। प्रेम कोई गिलास में भरकर पी लेने जैसा  नहीं है। प्रेम तो देकर पाने योग्य है। प्रेम कोई वस्तु नहीं है, प्रेम तो एक भाव है। वह कोई पैसे जैसा थोड़े ही है, कि जिसको चाहो उसको भरकर दे दो। प्रेम तो करने से आता है। यह हमारी अन्तर्निहित भावनाएँ हैं। ऐसा नहीं कि प्रेम की सम्पदा किसी के पास नहीं है। आत्मा का स्वभाव प्रेमपूर्ण है। लेकिन उस स्वभाव को प्रगट करना है। वह तो करने से प्रगट होगा।

उदाहरण : यदि हम बैठे हैं, और कोई कहे कि तुम्हारे अन्दर चलने की शक्ति कहाँ है, तो क्या हम यह कहेंग कि नहीं है? हम यही कहेंगे कि संभावना है, चलने लगेंगे, तो चल पड़ेंगे। शक्ति जायेगी। यदि हम यह कहें कि चलने की शक्ति कहाँ है, पहले पक्का हो तो फिर चलेंगे, तो बात व्यर्थ हो गई। ठीक प्रेम भी उसी तरह करने से पैदा होता है। ये तो कला है।

प्रेम तो दान है। यह भिक्षा नहीं है, कि किसी से माँग लें या फिर आज्ञा नहीं है कि किसी को कह दें कि प्रेम कर लो। प्रेम तो तैरने जैसा है। नदी में उतरे की तैरना शुरू करें तो तैरना सीख जायेंगे। अब यह कहना कि पहले तैरना सीख लें फिर नदी में जायेंगे, तो फिर कभी आप तैराक नहीं बन सकते। पेम तो करने से मिलता है। प्रेम तो हमारे जीवन की शैली ही जानी चाहिए। देखिए, तो बड़े प्यार से। प्रत्येक को आत्मिक भाव से देखिए कि इनका मंगल हो जाये और-तो-और प्रकृति को भी अपने प्रेम की निगाह से देखना चाहिए। कवि मिल्टन के सम्बन्ध में किसी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि वह जूता भी बड़े ही प्यार से उतारता था और उसे भी धन्यवाद देता कि तुमने मुझे इतने काँटों से बचाया। कहने का भाव यह है कि हमारा कृत्य जो करने योग्य है वह अत्यन्त प्रेमपूर्ण हो तो सहज ही प्रेम का सागर हमारे चारों ओर लहराने लगेगा। प्रेम हो तो प्रेम करें, ऐसा नहीं। लेकिन प्रेम करो तो प्रेम बढ़ेगा। ________________________________शेष भाग -7


प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top