जीवन का परम सौन्दर्य –– प्रेम (Part 7 : L A S T)

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(भाग 6 का बाकी)

परिपूर्ण प्रेम की उपलब्धि के लिए अंतिम छलांग –– समर्पण

दर्शनाभिलाषी एक राजा महात्मा के पास दर्शन करने गया। उस महात्मा के लिए उसके मन में अपार श्रद्धा और प्रेम था। इसलिए एक हार जो अति विशिष्ट हीरे-मोतियों से बना एक अद्भुत कलाकृति थी उसे एक हाथ में लिये तथा दूसरे में एक सुदर गुलाब का पुष्प अर्पित करने उनके सम्मुख उपस्थित हुआ। जैसे ही राजा ने उस बहुमूल्य हार को संत बुद्ध को अर्पित करने के लिये अपना हाथ आगे बढ़ाया तक्षण संत बोले ``राजन इसे गिरा दो'' एक आघात-सा लगा राजा को। क्योंकि उसे उस प्रति-उत्तर की अपेक्षा नहीं थी, अपने श्रद्धेय से। लेकिन उसने आदेशानुसार उस हार को गिरा दिया। राजा ने अपने मन में सोचा शायद लौकिक सम्पदा से महात्माओं को क्या लेना? चलो यह गुलाब का पुष्प ही भेंट कर दें। क्योंकि यह हार से तो थोड़ा अलौकिक है ही। लेकिन जैसे ही राजा ने गुलाब के उस पुष्प को भेंट स्वरूप अपना दाहिना हाथ बढ़ाया संत ने फिर कहा ``इसे भी गिरा दो राजन'' राजा की परेशानी तो तब और अधिक बढ़ गई क्योंकि अब भेंट करने के लिए पुष्प के अतिरिक्त उसके पास कुछ और नहीं था। लेकिन संत के कहने पर उसने उस सुन्दर गुलाब को भी गिरा दिया। राजा भी बुद्धिमान था। अचानक उसे अपने `मैं' का ख्याल आया। उसने सोचा क्यों मैं अपने को ही समर्पित कर दूँ और वह अपने दोनों खाली हाथ को जोड़कर महात्मा के सामने झुक गया। उन्होंने फिर कहा ``इसे भी गिरा दो'' संत के वे सभी शिष्य जो वहाँ उपस्थित थे, हँसने लगे। तभी राजा को यह बोध हुआ कि मैं अपने को समर्पित करता हूँ यह भी अहंकार का एक हिस्सा है। इस `मैं' के अहंकार को भी गिरा देना है और उसने अपने को सम्पूर्ण रूप से महात्मा के चरणों पर गिरा दिया। महात्मा मुस्कराये और बोले –– राजन, तुम्हारी समझ अच्छी है।

परमपिता परमात्मा शिव कहते हैं –– समर्पण अर्थात् पूर्ण परवाने जिसने अपने `मैं-पन' को परमपिता के आगे स्वाहा कर दिया। ऐसे परवाने की चार मुख्य बातें होती हैं –– सर्व सम्बन्ध, स्नेह, समीप और साहस। समर्पण अर्थात् श्वासों श्वास परमात्मा की स्मृति। सम्पूर्ण समर्पण अर्थात् तन, मन, धन, समय और सम्बन्ध –– सभी में समर्पण। समर्पण के इस उपरोक्त अति गुह्य गोपनीय सार-सूत्र को सामने रख आइये थोड़ा-सा विचार करते हैं। क्योंकि प्रेम की उपलब्धि बिना समर्पण के सम्भव ही नहीं है।

`समर्पण' सुखमय जीवन का प्रारम्भ भी है और जीवन के परम विकास की परिपूर्णता भी है। समर्पण से सम्पूर्ण समर्पण की मंज़िल तक पहुँचने में मनुष्य के सामने कई अवरोध आते हैं। लेकिन जो इस राज को जानने लगता है, उसके जीवन में आनन्द की सहजता सहज ही पल्लवित और पुष्पित होती रहती है। जब हमारी आस्था हमारा दृढ़ विश्वास उस सर्वशक्तिवान परमात्मा के प्रति हो जाता है कि वही हमारे जीवन का परम आश्रय है, तो उसके प्रति समर्पण सहज फलित होता है, जो हमें सभी चिन्ताओं से मुक्त कर देता है। तो समर्पण का मतलब होता है उन वृत्तियों का, उन भावों का, जिसमें हमें यह अनुभव होने लगता है कि `मैं' स्वयं अपने पुराने संस्कारों और पुराने जीवन से भी बिल्कुल सम्बन्ध नहीं रखता। `मैं' ईश्वर को समर्पित करता हूँ। फिर यह समर्पण किसका हुआ? उस `मैं' का उस अहंकार का। बिना अहंकार के परिणाम और उद्देश्य के बारे में कौन सोचेगा? और जो समर्पित व्यक्ति प्रभु के आदेश से सोचता और कर्म करता है उसका उद्देश्य और परिणाम परम्öकल्याणकारी ही होता है क्योंकि अब सभी निर्णय भी हम परमात्मा के हाथों में ही समर्पित कर देते हैं।

ध्यान रहे सभी अहंकार प्रभु-प्रेम में समर्पित होकर ही मिटाये जा सकते हैं। तो एक तरफ हम अपना समग्र प्रयास उन सभी अहंकारों को ज्ञान के द्वारा मिटाने में लगा देते हैं, जिससे समर्पण सहज आता है। दूसरा, वे सभी कर्म, जिसमें `मैं' के अहंकार की सम्भावना हो, उस कर्म और उस फल को प्रभु को समर्पित करने से भी समर्पण की सुगन्ध जीवन में फैलने लगती है। जिससे सम्पन्नता और सम्पूर्णता का आनन्दोत्सव व्यक्ति के जीवन में प्रारम्भ हो जाता है। साक्षी होकर सोचे तो समर्पण करने के लिए हमारे पास व्यर्थ संकल्प के कूड़े-कचरे के अतिरिक्त और है भी क्या? `मैं' का अहंकार और यदि हम इस `मैं' के कचरे को समर्पित कर देते हैं तो उस करुणामय से अनन्त आशीषों की वर्षा स्वत होने लगती है। फिर इस व्यर्थ का समर्पण भी दिव्यता में बदल जाता है। सब कूड़े-कचरे, हीरे-मोतियों में बदल जाते हैं इसलिए समर्पण एक सृजनात्मक शक्ति भी है।

समर्पण का प्रारम्भ –– ईश्वरीय प्रेम

समर्पण प्रारम्भ भी है, समर्पण वमिक आध्यात्मिक विकास भी है और सम्पूर्ण समर्पण दिव्य अवस्था की अंतिम मंज़िल पर पहुँचने की उड़ान भी, परन्तु समर्पण का उद्गम या प्रारम्भ बिन्दु प्रभु-प्रेम ही है। जिस परम मंगलमय प्रभु की पावन स्मृति से ही मन आनन्द से अप्लावित हो उठता है, फिर उनके प्रेमपूर्ण सर्व सम्बन्धों के सानिध्य का क्या कहना। इसलिये प्रेम से भरे भाव के हृदय में समर्पण की आलौकिक विशिष्ठताएँ सहज ही स्फूर्ति होती हैं। प्रेम और समर्पण युग-पद घटनाएँ हैं। यह एक चक्रीय शृंखला है। प्रेम से समर्पण प्रगढ़ होता है। इसलिए प्रभु-प्रेम में सम्पूर्ण समर्पण की साधना आध्यात्मिक वमिक विकास ही नहीं, परन्तु मंज़िल की ओर उड़ान भी है। जिस उड़ान में पहाड़ जैसा अवरोध भी राई जैसा लगने लगता है। ईश्वरीय प्रेम को पाकर जीवन का विकास सहज ही प्रारम्भ हो जाता है। धीरे-धीरे हम (ईश्वरीय ज्ञान) के द्वारा सर्व दुःखों का या विकारी संस्कार रूपी अज्ञानता को हटाने वाली सत्य ज्ञान की निर्मल किरण को प्राप्त करने लगते हैं। फिर हम संकल्प करते हैं कि अब हमें अपने मन और बुद्धि को भी प्रभु को अर्पित कर देना चाहिए। यही मध्य, हमारे जीवन का परिवर्तन काल होता है। जहाँ तन, धन, सर्व सम्बन्धों को समर्पित करना तो सहज है लेकिन मन और बुद्धि की उन दुरूह जटिलताओं को, जिसमें अदृश्य संस्कारों की सघन परतें जमी हैं, हम वह सब-कुछ भी समर्पित कर देते हैं। तब अपना कहने वाली मन, बुद्धि और संस्कार के अहंकार भी शून्य हो जाते हैं और उस स्थिति में हम प्रभु का श्रेष्ठ माध्यम बन जाते हैं। समर्पित जीवन खाली बांस की पोगरी (बांसुरी) बन जाती है। जीवन में अपनी इच्छाओं के कोई भी कर्म और संकल्प के स्वर उस बांसुरी से नहीं निकलते हैं। सर्वशक्तिवान परमात्मा ही चाहे तो अपने होठों से उसमें स्वर पूँके, कोई झंकार पैदा करें। अन्यथा वह आवाज़ शून्य और खाली, मात्र माध्यम रह जाता है। परमात्मा उसे जैसा चाहे वैसा बजाये। उसका अपना कोई हस्तक्षेप नहीं रह जाता है।

निर्णय हुआ समर्पण का मध्यकाल या साधना का समय इसमें एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सब-कुछ सभी साधनाएँ प्रभु को समर्पित करने का अर्थ सुस्त आलसी और प्रमादी बनना नहीं है, अपितु महान् परिवर्तन के लिए तीव्र पुरुषार्थ या प्रगाढ़ प्रयास की आवश्यकता है। सर्वांगीण जीवन में `मैं-पन' और `मेरा-पन' के अहंकार को हटा निरहंकारिता को धारण करना है। जिसे प्रभु कहते हैं दृढ़ संकल्प से तीव्र पुरुषार्थी बनो तब ही समर्पण फलीभूत होगी। दूसरी बात, अनुभव कहता है विराट जीवन के साधना काल में वे सभी अदृश्य कर्म फल, संस्कार या अन्य बाधायें कभी-कभी हमें निराशा, उदासी, भय और अनेक प्रकार की चिन्ताओं के अंधेरे कुहरे में धकेल देता है। ऐसे समय में यदि अपना प्रयास या पुरुषार्थ काम नहीं देता हो तो बच्चों जैसा सरल बन प्यारे पिता परमात्मा के प्रेमपूर्ण सम्बन्ध से अपनी सम्पूर्ण पहाड़ जैसी बाधाओं को प्रभु को अर्पित कर देना चाहिए। अपना सारा बोझ, व्यर्थ संकल्पों का कूड़ा-कबाड़ा सब-कुछ प्रभु को सौंप हमें हल्का हो जाना चाहिए। फिर अनुभव कहता है पहाड़ जैसी बाधाएँ राई तो क्या, रूई बन उड़ आपके पुरुषार्थ मार्ग से अवश्य ही किनारे हो जायेंगी।

प्रभु-समर्पण अर्थात् जीते जी मरजीवा बनना है अर्थात् मृत्यु के बोध के साथ-साथ नूतन जीवन का अनुभव भी। दोनों अनुभव साथ-साथ होते हैं ––  दोहरा मृत्यु, दोहरा जीवन। मृत्यु का पहला अनुभव अशरीरिक आत्मिक-अवस्था का अनुभव है, जिसमें हमें पता चलता है कि मैं अविनाशी आत्मा हूँ। नवजीवन का अर्थ है अब हमने जिस अमर आनन्द स्वरूप मृत्युंजयी अवस्था का अनुभव किया है, जीवन में जीने के ढंग का, वैसा ही नूतन विकास और पुराने ढंग की मृत्यु, क्योंकि अब हमारी स्मृति ही बदल गई। वे सभी पुरानी मान्यताएँ टूट गई। सम्पूर्ण समर्पण अर्थात् स्वाहा ö महामृत्यु। शरीर तो वही रहता लेकिन मन, बुद्धि और संस्कार बदल जाते अर्थात् सभी अहंकारों का मिट जाना सम्भव हो जाता है। साथ-ही-साथ नये, स्वस्थ, शुभ और सुन्दर का जन्म। आँखों में नई स्वस्थ ऊर्जाएँ, पैरों में उमंग-उल्लास का नृत्य, हृदय में नये सरगम की झंकार, ऐसे जैसे क्षणभर पहले जीवन में जहाँ रेगिस्तान था, वहाँ अब अनन्त- अनन्त मधुबन और मधुमास गया हो। जहाँ मोरनी का नृत्य पंछी के कलरव और पने की पायल बजने लगी हो।

प्रभु-प्रेम में समर्पित जीवन वह बंसन्ती मौसम है, जिसमें जन्मों से असंतृप्त चित्त में एक परम तृप्तदायिनी आनन्द, प्रेम, शान्ति की शीतलता, जो तन प्राणों को प्रफुल्लित कर जीवन में नव उमंग-उत्साह, एक अनिवर्चनीय ताजगी से सराबोर कर देता है। इसलिए प्रभु-समर्पण आनन्दित जीवन की एक अनिवर्चनीय घटना है, जिसे कहा नहीं जा सकता। जीया जा सके, पीया जा सके, अनुभव किया जा सके। जो प्रभु-प्यार में समर्पित है, उस पर प्रभु प्यार से समर्पित है अर्थात् परमात्मा के सभी खज़ाने ö ज्ञान, गुण, शक्तियाँ उसके लिये समर्पित हैं। इसलिए यदि ईश्वरीय प्रेम की सरिता का प्रवाह समर्पण के शिखर से होता है तो वह जन कल्याणी के साथ-साथ सुखद और मनोहारी भी है और तब ही परिपूर्ण प्रेम मानव जीवन में प्रगट होता है। जो सफलता और समृद्ध से आपके जीवन को भरपूर कर देता है। (समाप्त)                                                                                                                                  प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।

आपका तहे दिल से स्वागत है।              

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