नि:स्वार्थ कर्म –– जीवन की सुगन्ध
आज मानव, एक तरफ विज्ञान के माध्यम से परिवर्तन और प्रगति के नये आयाम को स्पर्श कर रहा है, तो दूसरी तरफ अनेक शारीरिक और मानसिक बीमारियों से घिरा अपनी मूल धारा आनन्द, प्रेम, शान्ति और सुख से दूर,
दुःख, तनाव और अशांति के गहन अन्धकूप में जा गिरा है। ऐसे में एक आलौकिक आनन्द की इच्छा, एक शाश्वत सुख-शान्ति की सम्पदा को प्राप्त करने की आकांक्षा प्राय सभी मनुष्यात्माओं में होती है,
परन्तु इसके लिए आवश्यक है पुराने ढंग से जी रहे जीवन में सर्वांगीण आध्यात्मिक परिवर्तन। नये और शुभ का अंकुरण जीवन में तभी संभव है जब जीवन परिपूर्ण प्रयत्न से गुजरे। आज जो स्थिति सम्पूर्ण मानव समुदाय की है, वह दयनीय और विचारणीय है। मनुष्य ने आज पहली बार इतनी समृद्ध व्यवस्था का निर्माण कर लिया है, जितना पहले कभी नहीं था। इतनी समृद्ध वैज्ञानिक व्यवस्था उपलब्ध होने के बाबजूद भी हम दुःखद और नारकीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
आज मनुष्यता कितनी बड़ी विरोधाभासी जीवन के बीच खड़ी है? जहाँ एक ओर वैज्ञानिक तकनीक युक्त अपार वैभव,
सुख-सुविधापूर्ण समृद्ध व्यवस्था है, वहीं दूसरी ओर समाज सर्वाधिक अप्रसन्न, अशान्त, विक्षिप्त और कुरूप हो गया है। अतीत की वह मानवीय सभ्यता जो आज जैसी समृद्ध व्यवस्था से सम्पन्न नहीं थी, फिर भी मानव प्रसन्न, सुखद और शान्ति के वातावरण में पलता था। दुनिया के केने-कोने से लोग आज इस बात की तलाश में संलग्न हैं कि कैसे अतीत के लोग और उनकी संस्कृति ऐसे अभाव पूर्ण माहौल में भी स्वर्गिक सुख के साथ अस्तित्व में थी। जबकि आज सबकुछ होने के बाद भी हम मनुष्य कहलाने से शर्मा रहे हैं।
21वीं सदी में रूपान्तरण समय की पुकार बन गई है। जिस अधैर्य चित्त के साथ इंसान आज जी रहा है वह भविष्योन्मुख है। उसके लिए आज पुन आत्मिक निरीक्षण और आध्यात्मिक क्रान्ति से गुजरना अनिवार्य होता जा रहा है। अन्यथा मनुष्यता को इस धरा पर और अधिक जिन्दा रखना असम्भव सा होता जा रहा है। आज मनुष्य को पुन उसके मूल स्त्रोत से जुड़ने की घड़ी आ गई। इसके लिए आज आध्यात्मिकता, आधुनिक मनुष्य के लिए अत्यधिक प्रासंगिक हो उठा है। एक सुखमय और सफल जीवन के लिए आज यह जानना और उसे जीवन में उतारना अत्यन्त आवश्यक है कि मानवीय मूल्य क्या है? यथार्थ कर्म और उसका फल क्या है? जीवन के शाश्वत नियम क्या हैं?
मूर्च्छा और प्रमाद क्या है?
कर्त्ता कौन है? कर्म और इद्रियों के प्रति आसक्ति और गुलामी क्या है? इतने साधन उपलब्ध होने के बावजूद भी मनुष्य दुःखी क्यों है? इन सभी बातों पर पुनर्विचार करना अत्यन्त आवश्यक है। कर्त्ता, कर्म और परिणाम से उत्पन्न प्रभाव हमारे जीवन और जीने की कला को कितना प्रभावित करता है,
इन सभी तथ्यों पर आइये एक पक्षमुक्त दृष्टि डालें ö
कर्म का सिद्धान्त : कर्म मनुष्य की स्वतंत्रता की अनंत अभिव्यक्ति है। हमारे विचार, शब्द और क्रियाएँ जाल के धागे हैं जो हम अपने चारों ओर बुनते रहते हैं।
–– स्वामी विवेकानन्द
प्रत्येक व्यक्ति कर्मों के चुनाव के प्रति अनेक विल्कपों से भरा है। जैसा चाहे वह चुनाव कर सकता है, परन्तु कई बार इस चुनाव में वह अपनी अचेतन आदतों का शिकार हो, गलत चुनाव भी कर लेता है। जिसे कर्म के चुनाव के प्रति बेहोशी या यांत्रिकता भी कह सकते हैं, परन्तु चुनाव चाहे जिस भी हालत में हो उसका परिणाम निश्चित है। चाहे वह सुखद हो या दुःखद। यद्यपि अधिकतर लोग यह जानते हुए कि वे कर्म के चुनाव में स्वतंत्र है,
तथापि वे दूसरों द्वारा या आदत वश प्रतिक्रियात्मक कर्म करते रहते हैं, और यह भूल जाते हैं कि इन परिस्थितियों में भी यदि वे थोड़ा ध्यान दें तो वे उन आदतों का अतिक्रमण कर कर्म के चुनाव में कर्त्ता बने रह सकते है। चुनने के प्रति जब भी हम निर्णय ले तो इस बात का ख्याल रखे कि इस कर्म के आदि,
मध्य और अंत का परिणाम क्या होगा। दूसरा, इससे स्वयं और दूसरों को कितना सुख और दुःख मिलेगा।
सभी प्रकार के कर्म देर-सवेर लौट आते हैं चाहे अच्छा हो या बुरा-यही शाश्वत कर्म-फल है।
यह जगत एक विशाल गुबिज है,
जिसमें आपकी आवाज़ वापस आपके पास लौट आयेगी। मनुष्य के जीवन में प्रत्येक कर्म भाव और विचार बूमरैंग की तरह है (यह एक प्रकार का हथियार है जिसे सही ढंग से फेंकने पर वापिस फेंकने वाले के पास ही लौट आता है)। जीवन एक अनुगूंज है। यह इको प्वाइन्ट है, जहाँ से समस्त ध्वनियाँ प्रतिध्वनित हो जाती हैं। यहाँ आपकी प्रत्येक क्रिया की समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। दुःख देने वाले प्रत्येक कर्म रूपी बीज का फल आपके लिए दुःख का फल ले आयेगा। इसलिए अंतरजगत के इस शाश्वत नियम को पहचाने। यदि कोई भी अपने लिये दुःख का बीज बोता है, तो निश्चय ही वह अपने प्रति शत्रुता करता है। वैसे कोई भी अपने को दुःख देना नहीं चाहता लेकिन अनजाने में भी उसके द्वारा किया गया दुःखदाई कर्म अवश्य ही फलीभूत होता है।