नि:स्वार्थ कर्म – जीवन की सुगन्ध (Part : 5)

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(भाग –– 4 का बाकी)...


अभ्यास से हमारा अर्थ : उन झलकियों की, अनुभवों की पुनरोक्ति, उसका बार-बार स्मरण, निरन्तर हमें अपने भीतर डालते रहना है और जब भी कोई पुराना संस्कार धोखा देने लगे, अनेक इच्छाओं-कामनाओं की छवि धरे, उस वक्त हम वैराग्य के स्मरण के सहारे उस पर नियत्रण स्थापित कर सकते हैं और तब वैराग्य की जो लकीर बनेगी वह `पानी' नहीं बल्कि पत्थर  पर खींची लकीर सिद्ध होगी। यह बड़े मजे की बात है कि जीवन में वैराग्य तो सभी को आता है, हर बार बुरा करने के बाद उसे नहीं करने की प्रतिज्ञा भी मन में आती है, परन्तु मन का ऐसा अभ्यास तो जन्मों से है, परन्तु अब हमें वैराग का ऐसा अभ्यास करना होगा।

जब भी मन पुराने संस्कारों के वशीभूत नया धोखा खड़ा करता है, तब हमें वैराग्य की स्मृति लानी है। क्या लानी है? यह तो मैं देख चुका हूँ.... सुन चुका हूँ.... बार-बार इसका परिणाम क्या हुआ इसे भी जान गया हूँ। परिणाम की लगातार सोच, पुराने अनुभवों की स्मृति और उन झलकियों के संग्रह को जब भी कोई साधता चला जाता है तो पुराने संस्कार और नकारात्मक विचारों के विपरीत मन में एक नई शक्ति का निर्माण प्रारम्भ होने लगता है, जो मन की पागल दौड़ को रोकने में और साक्षी बनने में सहयोगी साबित होता है। धीरे-धीरे आन्तरिक साधना में संयम का एक नया नियत्रण केद्र स्थापित होने लगता है। जब-जब भी मन वासनाओं के वशीभूत होने लगे उसी क्षण वैराग्य के स्मरण के कारण आप स्वाभाविक रूप से उसे नहीं करने के लिए ठहर जायेंगे।

अभ्यास का केवल इतना ही अर्थ है कि जीवन में रही सहज वैराग्य की झलकियों को संजो लेना तथा नई शक्तियों को निर्मित कर लेना। अभ्यास कई तरीके से संभव है।

उदाहरण : बुद्ध दीक्षा के बाद अपने भिक्षुओं को तीन महीने के लिए शमशान में रहने के लिए भेज दिया करते थे। ताकि भिक्षुओं की अन्तर्दृष्टि मौत के प्रति स्पष्ट हो जाये कि यह शरीर नाशवान है, फिर इससे क्या दिल लगाना। वह भिक्षुक लगातार तीन महीने तक प्रतिदिन अनेक मुर्दों को जलते हुए देखता रहता था। तीन महीने बाद मृत्यु के प्रति उसका दृष्टिकोण वैराग्य पूर्ण हो जाता था।

हमें श्मशान तो नहीं जाना है लेकिन हमारी अन्तर्दृष्टि जो परमात्मा ने हमें दी है कि ``बच्चे यह पुरानी दुनिया कब्रिस्तान है, मुर्दों से क्या दिल लगाना। यह वो नज़दीक का समय है जब इन आँखों से दिखने वाली कोई भी वस्तु नहीं रहने वाली, सब मिट्टी में मिल जायेगा'' मानवीय सभ्यता विनाश के कगार पर खड़ी है। वैज्ञानिक तथ्य तथा अलौकिक भविष्यवाणियाँ दोनों ही एक बिन्दू पर मिलती नज़र रही हैं, जो जीवन के प्रति ही नहीं बल्कि  वस्तु और प्रकृति के प्रति भी हमें सम्पूर्ण रूप से वैराग्यपूर्ण कर देता है।

मात्र दृढ़-निष्ठा के साथ हम इसका स्मरण करें और प्रतिदिन स्मरण करें, तो सहज ही जीवन में बेहद का वैराग्य फलित होने लगेगा और हम अपने उच्च जीवनोद्देश्य के मार्ग पर तीव्र-गति से अग्रसर हो जायेंगे।

कौन-से कर्म करने योग्य हैं?

कर्म का आविर्भाव दो तरह से होता है –– एक तो अज्ञान के निकला हुआ कर्म, दूसरा –– ज्ञान से निकला हुआ कर्म। अज्ञान से प्रवाहित कर्म में कर्त्ता और अंहकार दोनों संयुक्त होते हैं। जिसे प्राय हम कहते हैं `मैंने किया है' अज्ञान से निकले कर्म में अज्ञान और अहंकार संयुक्त रहता है।

ज्ञान से निकले कर्म में कर्त्ता के भाव का अभाव होता है। जिसे प्राय हम कहते हैं `हम तो निमित्त हैं' तो ज्ञान युक्त कर्म निरहंकारिता से जुड़ी घटना है।

हम इसे ऐसे समझें कि वह कर्म जिससे दुःख, बंधन और अशान्ति का अभ्युदय होता है वह अज्ञान से निकले कर्म हैं और वे कर्म जो बाँधते नहीं हैं, आनंद-मंगल पैदा करते हैं, जिसके करने से चिंता नहीं, निश्चिंतता और प्रसन्नता आती है, जो गुलामी नहीं मुक्ति पैदा करता है –– ज्ञान युक्त कर्म के अनिवार्य लक्षण हैं।

कर्म अपने अनेक रूपों और रंगों में क्या है?

कर्म के जगत में प्रवेश करने से पहले हमें कर्म और क्रिया दोनों के भेद को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। क्रिया भी दो तरह की है। कुछ क्रियाएँ ऐसी हैं जो नैसर्गिक हैं। जिस पर मनुष्य का नियंत्रण नहीं है। उसे अनैक्षिक क्रिया कहते हैं।

जैसे जन्म से ही नींद का आना, श्वास का चलना, भूख-प्यास का लगना अन्य, क्रियाएँ भी चलना इत्यादि। हाँ अगर श्वास को कोई प्राणायम बना लेता है तो वह कर्म से क्रिया बन जाता है। कुछ इस तरह की क्रियाऐं भी है, जो वंशानुगत गुण-दोषों से प्रभावित रहती हैं, परन्तु क्रिया से हमारा तात्पर्य निम्नलिखित क्रिया से है। कुछ क्रियाएँ ऐसी हैं जो हमारी इच्छाओं, कामनाओं के विस्तार, परम्परागत पुरानी मान्यताओं, धारणाओं और अचेतन पुरानी आदते तथा संस्कारों के कारण होती है।

हम प्राय परवश हो इन क्रियाओं को करते रहते हैं। इसे ही प्रतिकर्म भी कहा जाता है। यही क्रियाएँ मनुष्य के बन्धन का कारण है। यह कर्म के प्रति मनुष्य की पराधीनता की स्थिति है। तंद्रावश, मुर्क्षावश, देह अभिमान के वश, अंहकार वश और अन्य विकारों के वश हम क्रिया की इसी यांत्रिकता में विकारों के आवर्तन-पुनरावर्तन में फंसे इस भ्रम में जीवन जीते रहते हैं कि हम कर्म कर रहे हैं। फिर प्रश्न उठता है कि कर्म क्या हैं?

जब मनुष्य सावधान होकर इस अनुभूति के साथ कि मैं इस नश्वर शरीर में चैतन्य ज्योतिबिन्दू आत्मा हूँ, श्रेष्ठ प्रयोजन और दूसरों के अहित से बचकर मन, बुद्धि, वाणी और अन्य इद्रियों द्वारा स्वेच्छा से, बिना किसी दबाव के या प्रतिक्रिया के कर्म करता है वहीं वास्तव में कर्म है। ईश्वरीय ज्ञान के माध्यम से मनुष्य अपने अन्दर गलत और सही कर्म का भेद-ज्ञान पैदाकर कल्याण भाव से कर्म करें तो ऐसा कर्म मनुष्य को नहीं बांधता है। इसलिए क्रिया और कर्म के भेद को समझना हमारे लिए आवश्यक है। नहीं तो सुबह से रात्रि तक विकारोवश प्रतिक्रिया या प्रति कर्म को कर्म समझ करते रहते हैं।

इस भयंकर भूल से हमे अपने को बचाना चाहिए नहीं तो क्रियाओं की इस यांत्रिकता  से हमें मुक्ति नहीं मिलेगी। जितना जल्द हो सके हमें क्रियाओं से अपने को बचाकर कर्म की जमीन पर ला खड़ा करना चाहिए। ताकी प्रतिक्रिया की गुलामी से छूट स्वतंत्रता के आनन्द में डूबा जा सके। यहाँ फिर यह प्रश्न उठता है कि ``कर्म क्यों करें?

कहते हैं –– खाली दिमाग शैतान का घर'' अर्थात् यदि आप कर्म नहीं करेंगे तो क्रिया जड़ हो जायेंगे अर्थात् आप पुन क्रियाओं में फंसकर यांत्रिकता और पुनरावर्तन का शिकार हो जायेंगे और मालिकपन और आधिकारी आत्मा के अमृत आनन्दभाव से वंचित रह जायेंगे। इसलिए कर्म करना जारूरी है। आईये, प्रतिकर्म को थोड़ा विस्तार से देखते हैं।

कर्मों की गति अति गुह्य और गहन है। व्यक्ति के जीवन में चाहे वह तपस्वी हो या साधारण जन, उन्हें कर्म की सूक्ष्मता का अहसास सही अर्थों में होना नितांत आवश्यक है। बहुत-से ऐसे कर्म जिसे हम कर्म कहते हैं वास्तव में वह कर्म नहीं हैं अपितु कर्म की प्रतिक्रिया या प्रत्युउत्तर है, जिसे हम प्रतिकर्म कह सकते हैं। वह स्वाभाविक, सहज-जाते नहीं है।

जैसे –– यदि कोई हमारे लिए अपमान भरे शब्द का सम्बोधन करता है, जिससे प्रतिक्रिया स्वरूप हमारे अंदर क्रोध पैदा होता है और प्रतिउत्तर में हम भी क्रोध या अपमान के बोल बोल देते हैं या फिर उसी भाव से भर जाते हैं। इसे ही प्रतिक्रिया और प्रतिउत्तर वाला कर्म कहते हैं। उसी प्रकार यदि किसी से सम्मान मिलता है, प्रशंसा मिलती है तो हम खुशी से फूल जाते, प्रेम से गद्गद् हो जाते हैं। यह भी उसी प्रकार का प्रतिकर्म है।

इस तरह के कर्म सारे दिन हमारे जीवन में होते रहते हैं। राग-द्वेष, निंदा-स्तुति, मान-अपमान से प्रभावित कर्म बाहर से पैदा किया गया उत्पादित कर्म है। वह कर्म तो ऐसे हैं जैसे किसी ने बिजली का बटन दबा दिया ओर बल्ब जल गया और जब बटन ऑफ कर दिया तो बल्ब बुझ गया।

बुझना और जलना उत्पादित कर्म है। किसी ने अपमान किया और आप जल भुन गये तो यह हुआ उत्पादित कर्म। लेकिन किसी ने आपका अपमान किया और आपने उसका उत्तर मुस्करा कर दिया तो यह उत्पादित कर्म नहीं अपितु सहज कर्म हुआ। इसलिए कर्म का अर्थ है सहज। प्रतिकर्म का अर्थ है प्रेरित कर्म।

प्रेरित कर्म तो गुलामी है। जब कोई दूसरा हमसे कर्म करवा लेता है तो हम मालिक कदापि नहीं कहला सकते हैं। इसलिए सहज कर्म जो स्वतंत्र है राजा है वही कर सकता है। सच्चे अर्थ में राजयोग द्वारा मनुष्य कर्मयोगी बन सकता है। इसलिए ध्यान देने पर पता चलता है कि हमारे बहुत से कर्म प्रतिकर्म होते हैं, ऐसे कोई कर्म नहीं जो अनेक आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से मिश्रित होते हों।

शेष भाग –– 6...

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के सेवाकेन्द्र पर आप सपरिवार पधारें।
आप सभी का तहे दिल से स्वागत है।


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