नि:स्वार्थ कर्म – जीवन की सुगन्ध (Part : 6)

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(भाग 5 का बाकी)........... फलाकांक्षा रहित कर्म सम्भव है?

सर्वप्रथम तो हम सभी इस बात को मानते हैं कि श्रेष्ठ कर्मों का फल आनंद और खुशी है। लेकिन गहरे में श्रेष्ठ कर्म ओर आनंद अलग-अलग नहीं, अपितु संयुक्त घटना है। यदि आनंद परिणाम है तो भी यह फल नहीं है। यह तो आत्मा का स्वभाव है। बिना कर्म के भी यदि कोई व्यक्ति चाहे तो अपने आत्मिक-स्वभाव में स्थित रह सकता है। साधारणत जीवन में जो भी कर्म सम्पादित होते हैं वह किसी किसी प्रेरणा से होते हैं। उस समय कर्म के पीछे एक अन्तप्रेरणा या बाह्य प्रेरणा अवश्य होती ही है।

जीवन में व्यक्ति के अंदर कर्म की शक्ति हमेशा द्वंद्वों के बीच आंदोलित होती रहती है। या तो व्यक्ति आकर्षण  के वश खींचते हुए कर्म करता है या फिर विकर्षण के वश भागने का कर्म करता है। या तो हमारे अन्दर राग होता है या द्वेष, या प्रेम होगा या घृणा, या तो मान होगा या अपमान।

ये द्वंद्व वास्तव में दो शक्तियाँ नहीं हैं। एक ही कर्म की शक्ति के दो छोर हैं। साधारणत कर्म जगत इन द्वंद्वों में बंटा रहता है। राग-द्वेष, मित्रता-शत्रुता, घृणा-प्रेम इत्यादि। प्रेम में मन को सुख की सान्त्वना मिलती है तो घृणा दुःख का विष-फल ले आता है। राग में सुख मिलेगा का भरोसा आता है तो द्वेष दुःख की परिणति बन जाता है। लेकिन जो व्यक्ति इन द्वंद्वों से पार चला जाता है उसका जीवन निष्काम कर्मयोगी जीवन हो जाता है। लेकिन बात सहज नहीं लगती है।

कर्मों का सम्पादन साधारणजन इन्हीं दो कारणों से करते हैं। या तो पाने में या छोड़ने में। कर्म की जो प्रेरणा है उसका जो बदलाव है उसके बिना कर्म कैसे होगा? थोड़ा इस बात की व्याख्या देखें।

पश्चिम के मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि Unmotivated action is imopossible बिना अंतप्रेरणा के कर्म असंभव है। पश्चिम का यह दावा है कि बिना कारण के कर्म नहीं हो सकता। ठीक नहीं है। क्यों? क्योंकि उनका अध्ययन हमेशा रुग्ण लोगों का रहा है।

मनुष्य में ऊँचाईयाँ भी हैं और गहरे गड्ढे भी हैं। मनुष्य या-तो देवत्व के शिखर तक पहुँच सकता है, Superhuman भी हो सकता है तो पतन पराभव तक भी जा सकता है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों का अनुभव विक्षिप्त लोगों के अध्ययन का अनुभव है। वैसे तो स्वस्थ लोग पश्चिम में भी हुए हैं। लेकिन भारत के महापुरुषों से इस बात को सिद्ध किया है कि निष्काम कर्म सम्भव है। कृष्ण, राम, महावीर, बुद्ध, शंकर, नागार्जुन, रामानुज, तिरुवल्लुवर और प्रजपिता ब्रह्मा आदि अनेकों ज्योतिर्मय व्यक्तित्व भारत में हुए हैं, जिन्होंने मनुष्य के उच्चतम शिखर को स्पर्श किया है।

निष्काम कृत्य का आधार है –– खेलपूर्ण अन्तर्दृष्टि

निष्काम कृत्य के लिए दो-तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं –– जब हम खेलते हैं तो खेलने में राग-द्वेष नहीं सिर्फ आनंद होता है। लेकिन खेल प्रतियोगिताओं ने आज खेल की मौलिकता को नष्ट कर दिया है। जिसके कारण खेल को भी लोगों ने कर्म बना दिया है। समझदार लोग तो कर्म को भी खेल बना लेते हैं, लेकिन कुछ लोग खेल को भी कर्म बना देते हैं।

शतरंज भी ऐसा ही एक खेल है। खेलते समय थोड़ी देर के बाद हम यह भी भूल जाते हैं कि लकड़ी का हाथी-घोड़ा कब वास्तविक हाथी घोड़ा में तब्दील हो गया। हार-जीत दाँव पर लग जाता है। हम गंम्भीर हो जाते हैं, जैसे असली युद्ध चल रहा हो और यदि इस झूठे युद्ध में हार भी गये तो भारी विषाद पैदा होता है। बच्चे भी खेलते हैं, परन्तु खेल उनके लिए कर्म नहीं अपितु आनंद (Unmotivated) है। उसका आकर्षण इस बात में नहीं है कि फल क्या मिलेगा। लेकिन खेलने का काम ही उन्हें पर्याप्त आनंद दे रहा है।

क्योंकि खेलना क्रिया नहीं कर्म है। एक और उदाहरण देखें। महात्मा गाँधी जी ने, नेहरू जी ने, खुदीराम ने, चद्रशेखर आजाद ने, भगतसिंह इत्यादि ने स्वतंत्रता सग्राम में यह नहीं सोचा कि कल ही उन्हें स्वतंत्रता मिल जायेगी और वह देश के सर्वोच्च पद के अधिकारी बन जायेंगे। नहीं (कर्मयोगी) बन उन्होंने अपने जीवन को इस कार्य के लिए उत्सर्ग कर दिया।

स्वतंत्रता के लिए किया जा रहा उनका यह कर्म आनन्द पूर्ण था बिना किसी राग-द्वेश के बिना किसी फलाकांक्षा के था। सुबह-सुबह एक व्यक्ति घूमने जा रहा है और आप उससे पूछते हैं कि वे कहाँ जा रहे हैं? तो वह कहता है कि घूमने निकला हूँ, कहीं जा नहीं रहा हूँ। वही व्यक्ति उसी रास्ते से दोपहर को कार्यालय जा रहा हो या किसी काम से बाजार जा रहा हो और आप उसका निरीक्षण करें तो पायेंगे कि वह सुबह वाली ताजगी, पैरों में वही लयात्मक गति, कदमों में वह हल्कापन अब उतना नहीं है जितना सुबह था।

अभी तो बड़े भारी मन से वह जा रहा है। क्यों? क्योंकि सुबह का कर्म Unmotivated अकारण, बिना किसी प्रेरणा के था। लेकिन कुछ व्यक्ति घूमने को भी काम बनाकर उसकी दिव्यता को खराब कर देते हैं। कोई प्राकृतिक चिकित्सा के कारण घूम रहा है तो फिर कोई बीमारी से लड़ने के लिए घूम रहा है। फिर उसका यह घूमना भी शर्तपूर्ण होता है।

दो मील चक्कर लगाना है कि पाँच मील चक्कर लगाना है। यद्यपि वह थक गए हैं फिर भी उन्हें चक्कर लगाना ही है। तो घूमने का यह काम उसके लिए बोझ बन जाता है। लेकिन आनंदित घूमता हुआ व्यक्ति कहीं से भी वापस लौट सकता है। क्योंकि उसे कोई भी शर्त पूरी नहीं करनी है। फिर घूमने का यह कर्म बिना किसी प्रेरणा के Unmotivated हो जाता है।

कई बार आप अनुभव करते होंगे आपके शरीर में ताकत है और सुबह शीतल पवन के हल्के झकोरों में, जन्मते सुबह की हल्की किरणों में आनंद-मगन थोड़ी दूर दौड़ भी लगा लेते हैं। यह शक्ति जो आपके अंदर दौड़ने के भाव से प्रवाहित हो रही है वह Unmotivated है। आनंद मगन कभी बाथरूम में आप अचानक ही गीत गुनगुनाने लगते हैं। यह सभी फलाकांक्षा रहित कर्म है। गाने से कुछ मिलने वाला नहीं है, परन्तु आनंदित होकर आप गा रहे हैं। गाँव में आज भी जो उत्सव-समारोह मनाए जाते हैं, भले ही आज उनमें कहीं--कहीं थोड़ी विकृति गई है, वह भी किसी कारण से नहीं मनाये जाते हैं, अपितु आनंदित होकर लोग नाचते-गाने उसे मनाते हैं।

पहले गाँव में ऐसा होता था –– फसल पक गई है, खेत फसलों से लहलहा रहे हैं और लोग आनंद-मगन नाच-गा रहे हैं। उस नाचने-गाने के उस कृत्य में कोई गेहूँ की बालियाँ बड़ी नहीं हो जायेंगी। नाचने-गाने में कोई फल पाने की प्रेरणा Unmotivated नहीं समाई हुई है।

नाचना-गाना उनके लिए एक खेल और उत्सव बन जाता है। ऐसा आनंदपूर्ण कृत्य बिना फल की आकांक्षा के ही होते हैं। आज भी पंजाब का उत्सव `बैसाखी' इस बात का प्रतीक है। यहाँ आबू में हम प्राय देखते हैं कि भील, गरासिये लोग सारे दिन काम करते हैं और शाम को घण्टों नाचते-गाते रहते हैं और फिर सो जाते हैं। तो कर्म तो नाचने का हो रहा है, लेकिन कर्म की ऊर्जा बिना किसी राग-द्वेष के उन कर्मों में बह रही होती है और उसमें नाचने वाले को आनंद रहा होता है। ऐसा नहीं है कि नाचने के बाद आनंद आयेगा। वास्तव में आनंद और कर्म संयुक्त घटना हैं। सभी कर्म निष्काम हो सकते हैं थोड़े चिन्तन के साथ हम सभी तरह के कर्मों को आकांक्षा और अपेक्षा से मुक्त, राग-द्वेष से मुक्त आनन्दपूर्ण ढंग से कर सकते हैं।

यदि जीवन में कर्म के प्रति खेल की यह अन्तर्दृष्टि बन जाये तो अलग से साप्ताहिक अवकाश पर जाने की बिल्कुल ही ज़रूरत नहीं रह जायेगी। लेकिन कर्म पुन पुन हमें आनन्द से तरोताजा करता रहेगा।

(शेष भाग - 7)

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में
आपका और आपके सपरिवार का
तहे दिल से स्वागत है...स्वागत है...स्वागत है...


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