(भाग 7 का बाकी) - - - - -फलाकांक्षा की व्यर्थता का बोध होना आवश्यक है
निष्काम कर्म में फल की आकांक्षा व्यर्थ है। बार-बार की यह अनुभूति जब सघन हो जाती है कि फलाकांक्षा व्यर्थ दुःख है,
फिर निष्काम कर्म फलित होता है। फलाकांक्षा सभी सुख की करते हैं लेकिन अंतत आता दुःख है। पहली बात-चाहा हुआ फल कभी मिलता है,
तो कभी नहीं मिलता है। मिलता भी है तो वह और अधिक तथा नये की चाहत में सुख नहीं दे पाता है। जिसे निन्यानवे का चक्कर कहते हैं। व्यक्तियों से लेकर वस्तुओं के जगत तक,
ज़रा आप सोचिए कि आपने जिस-जिस फल की अभिलाषा की थी और सम्भवत वह मिल भी गया हो क्या आप सदा के लिए सुखी हो गये? नहीं। फिर नये की आकांक्षा कि भविष्य में यदि यह दूसरा फल भी मिल जाए तो सुखी हो जायेंगे।
निष्काम-कर्म का यही राज है। फलाकांक्षा की इस तरकीब को देख लेना कि मन सदा जो उपलब्ध नहीं है उसे खोजता है और जो है उससे दुःख भोगता है। वह यह नहीं सोचता कि जो चीज़ आज उसके पास है कल जब नहीं थी उस समय उसने क्या यही नहीं सोचा था कि यदि वह चीज़ उसे मिल जाए तो वह बहुत सुखी हो जायेगा। लेकिन वर्तमान सदा दुःखी बना रहता है, भविष्य में फलाकांक्षा सुख के सपने को जगाता रहता है।
निष्काम-कर्म की यही अवधारणा है। जो कल पर टाल रहा है अर्थात् फल की आकांक्षा में जी रहा है वह समझदार नहीं है। भविष्य तो कभी होता ही नहीं है जो है,
वह आज और अभी है। लेकिन अभी और इसी क्षण जीने की क्षमता पैदा करने वाले को फल की दृष्टि छोड़ देनी चाहिए। यह क्षण तो कर्म है और कर्म सदा वर्तमान है। करना तो अभी है जो आपके हाथ में है। फल तो कल है। कर्म तो अभी किया जा सकता है। फल तो कल आएगा। वास्तव में फल के साथ अनेक अनिश्चिताएँ भी जुड़ी रहती हैं। क्योंकि फल तो अनेकों के संयोग से बनता है।
असल में फल की आकांक्षा में जीने वाले व्यक्ति को भगवान भी मिल जाये फिर भी कुछ और मिलना चाहिए यह अभिलाषा शेष रह जाती है। जो इस भाव में जी रहा है कि कर्म तो मैं कर सकता हूँ लेकिन कुछ भी नहीं मिले तो भी हर्जा नहीं। ऐसे व्यक्ति को तो एक रोटी का टुकड़ा भी तृप्त कर देता है। शुभभावना की एक प्रेमपूर्ण दृष्टि भी उसे आनंद के सागर में डुबा देती है।
अमेरिका के दार्शनिकों से पूछिए कि न्यूयार्क के अरबपति लोग जीवन को अर्थहीन और खाली क्यों समझने लगे हैं। उनके पास आज करीब-करीब सभी आकांक्षाएँ पूर्ण होने को हैं। तिजोरियां भरी हैं, वे कहते हैं कि समझ में नहीं आता कि जीवन क्यों अर्थहीन है। निष्काम-कर्म का राज इसी में है जिसकी यह समझ गहरी हो जाती है कि फलाकांक्षा व्यर्थ है वह कर्म से भागता नहीं, साक्षी हो कर्म को अभिनय की तरह करता है।
कर्म होशपूर्वक, साक्षी-भाव में स्थित होकर करें
मैं साक्षी-द्रष्टा हूँ, इस स्मृति से ही ऐसी शक्ति आ जाती है कि उसे कोई भी परिस्थिति डगमग नहीं कर सकती है। समस्या रूपी तूफान को वह तोहफा समझ, स्वभाव, संस्कारों की टकराहट को अनुभवी बनाने का आधार समझ, परीक्षाओं के खेल समझ, अपना अभिनय समझ करती रहती है।
दृश्य देखने में व निर्णय करने में वह भयभीत नहीं होती, परन्तु आनन्द लेती है। पहाड़ जैसी समस्या भी राई समान अनुभव होती है। प्रिय आत्मन! हमारे कर्म क्या परम जागृत अवस्था में होते हैं या कर्म जीवन में एक यात्रिकता मात्र होकर रह गया है? जैसे बिजली का बटन है उसे जब ऑन करो बल्ब जल जाता है। क्या वैसे ही किसी ने हमें अपमान के शब्द कहे और हमने क्रोध में तक्षण उसे भी अपमानित करने वाले शब्दों का सम्बोधन किया या वैसे ही विचार बिजली की तरह हमारे अन्तर्मन में कौंध गये। क्रोध के क्षणों में हम क्रोधित हो जाते हैं, उठ रहे उन भाव और विचारों के प्रति साक्षी होकर उसके निरीक्षक नहीं हो पाते हैं।
जब क्रोध आये तो उन क्षणों में आप यह सावधानी बनाये रखें कि हम उसे न दबायें और न ही उसे अभिव्यक्त करें। बल्कि जागरुकता की एक तीसरी अवस्था भी है, जिसे हम साक्षी की सुगन्ध कहते हैं। हम उसके साक्षी होकर मात्र उसका निरीक्षण करें। अन्दर उठते भावों को वैसे ही देखें जैसे समुद्र की लहरें उठती हैं। साक्षी होकर उसे देखते रहें, बिना किसी निर्णय के उठ रहें भावों के मात्र निरीक्षण से ही आपके अन्दर प्रवाहित हो रहे क्रोध के भाव रूक जायेंगे ओर एक यात्रिकता जिसे हम दोहराते रहते हैं उससे मुक्ति मिल जायेगी।
मैं अलग हूँ,
यह शरीर अलग है, मेरे हाथों द्वारा यह कर्म हुआ,
क्या इस स्मरण से हम कर्म करते हैं?
या मुझे पता भी नहीं चलता है कि मेरे हाथ कब यंत्रवत उठे और कब कर्म कर डाले?
मैं आत्मा इन कर्मेंद्रियों द्वारा कर्म करा रही हूँ इस बात का निरन्तर स्मरण बना रहे तब ही आप महान् जीवन को प्राप्त करने में सफल बन सकते हैं।
इसलिए स्वयं को इस दृष्टि में और शरीर में मेहमान आत्मा समझ,
कर्म और योग का संतुलन रखें। कर्म करने वाली ऐसी कर्म-योगी आत्मा स्वत ही महिमा योग्य महान् बन जाती है। साक्षी और परमात्मा के साथी बन ऐसी कमल आसनधारी न्यारी और अधिकारी कर्म योगी आत्मा स्वत ही सर्व कर्म बन्धनों और दुःख की लहर से मुक्त आनन्दमय जीवन को प्राप्त कर लेती है।
वास्तव में कर्म हम अतिफल की आकांक्षा से करते हैं। तो पहली बात हमें यह समझानी चाहिये कि आकांक्षा में हमारी इतनी शक्ति चली जाती है कि कर्म के लिए वह बिल्कुल ही नहीं बचती। इसलिए हम भविष्य में फल की आकांक्षा में इतना रसलीन हो जाते हैं। जितना फलाकांक्षा युक्त मन होगा, उतनी ही कर्महीनता आ जाती हैं और जितनी फलाकांक्षा रहित आत्मा होगी,
उतनी ही उसकी सारी ताकत कर्म को सम्पादित करने में संलग्न हो जाती है।
स्वभावत उसके उत्तम फल आने की संभावना भी बढ़ जाती है। कर्म करने का संकल्प और फल छोड़ने का साहस, यह निश्चय ही जीवन को सफल बनाने में आधार स्तम्भ सिद्ध होती है। गहन आत्म-विश्वास और परमात्मा में निश्चय रख यदि आप प्रभु समर्पित कर्म करते हैं तो ही निष्काम कर्मयोगी और परम आनन्दित जीवन को उपलब्ध कर सकते हैं। मनुष्य या तो अतीत के धक्के या भविष्य के आकर्षण से बँधा हुआ कर्म करता रहता है।
यदि कोई अपना अतीत और भविष्य सभी परमात्मा के हाथों में सौंप वर्तमान में कर्मयोगी जीवन का अभिनय करें, तो निश्चय ही अपना ध्येय प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर सकता है। यदि वह हमेशा वर्तमान का समय, संकल्प और सभी शक्ति श्रेष्ठ कर्म को समर्पित कर दें और मन के अंदर प्रभु के प्रति यह शुभ भाव रखे कि यह सेवा,
जो तूने मुझे दी है उसे पूर्ण आस्था और दृढ़ विश्वास के साथ आनंदपूर्ण होकर करूँगा और उसका जो भी फल मिले तो उसे बिना मेरे कहे उसे सभी के कल्याण में लगा देना। सदा आनंद से परमात्मा के लिए यह धन्यवाद के भाव निकले कि वाह रे मैं, नव-सृष्टि के सृजन में तूने मुझे सहयोगी बना लिया।
बिना किसी फल की चाह के यह श्रेष्ठ कर्म आपके जीवन को अनूठे आनंद से भर देता है। इतने विश्वास और साहस के साथ जो फलाकांक्षा को परमात्मा को समर्पित कर देता है और सो जाता है, फल का स्वप्न भी नहीं देखता, उसी के जीवन में अनंत अमृत फल लगते हैं। इसलिए फलाकांक्षा रहित कर्म संभव भी है और करने योग्य भी।
- - - - शेष भाग 9
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में
आपका और आपके परिवार का तहे दिल से स्वागत है।