(भाग 8 का बाकी) - - - - - `मैं' पन का अहंभाव एक भ्रान्ति है
`मैं'
पन आया और गुणों का गुलदस्ता मुरझाया। लोग साधारणत कई क्षुद्र अहं का दायित्व लेकर जीवन में कर्म करते रहते हैं और परिणाम में दुःख पाते हैं। कर्म में हमेशा मैं का अहंकार बाधा डालता है। मैं के अहंभाव से मुक्त होते ही `मैं'
शुद्धि सामर्थ्य की सत्ता उपलब्ध हो जाती है। `मैं' का भाव मिटा, मैं की सत्ता उपलब्ध हुई। मैं की सत्ता अर्थात् मैं आत्मा। `मैं'
का भाव अर्थात् अहंकार है। `मैं' के अहंकार की एक लम्बी सूची है जिसे हम यहाँ लिखना उपयुक्त नहीं समझते। प्रत्येक कर्म चाहे लौकिक हो या अलौकिक, हम चाहें तो उसे `मैं'
पन के भाव से मुक्त होकर कर सकते हैं। यदि ज़िम्मेदारियों का बोझ हम अपने ऊपर नहीं डाल, परमात्मा के ऊपर डालकर हल्के होकर कर्म करते हैं तो उस कर्म में हमें एक प्रकार का हल्कापन, प्रफुल्लता और खुशी का अनुभव होता है। क्योंकि जब सर्वशक्तिवान परमात्मा साथी है तो फिर चिन्ता किस बात की।
कर्त्ता, कर्म और फल इन तीनों में आपने ऊपर पढ़ा है कि कर्म फल छोड़ा जा सकता है,
कर्म नहीं। ठीक उसी तरह कर्त्ता के भाव को भी छोड़ा जा सकता है। अब यह प्रश्न उठता है कि बिना करने वाले के कर्म कैसे सम्भव होगा। करने वाला जो यह ``मैं'' है यह मनुष्य के जीवन में बहुत बड़ी भ्रान्ति पैदा करता है। `मैं' के उच्चतम `स्व'
जिसे हम आत्मा कहते हैं उसका तो मनुष्य को कोई बोध ही नहीं। निम्न `स्व' का बोध तो हमारे अंदर प्रतिपल बना ही रहता है और फिर `मैं' के अंहकार में फंसा आदमी कर्मों के दुश्चक्र में फंसता चला जाता है और क्रमश तनाव, जघन्य पीड़ा में धँसता चला जाता है।
जब सबकुछ पूर्व निश्चित है, फिर तनाव कैसा?
कहानी : वह संन्यासी बेतहाशा भाग रहा था क्योंकि उसके पीछे एक भूखा सिंह पड़ा था। किसको अपना जीवन प्यारा नहीं लगता है। उसे भी तो अपनी जान बचानी थी। आखिरी छोर जहाँ था वहाँ चट्टान समाप्त होती थी उसने छलांग लगा दी किसी तरह एक पेड़ की डाली उसके हाथ में आ गई और वह उसे पकड़ कर झूल गया। पीछा करता वह सिंह वहाँ आकर ठहर गया। संन्यासी ने एक राहत की साँस ली,
चलो जान बची तो लाखों पाए, उसके होंठ फुसफुसाये तभी उसकी निगाह ठीक उसके नीचे गई जहाँ ढलान पर एक बाघ उसकी प्रतिक्षा कर रहा था। जैसे ही उसकी नज़र ऊपर डाली पर गई तो उसने देखा, दो चूहे उसी डाल को कुतर रहे थे जिसको वह पकड़ कर झूल रहा था। एक क्षण तो वह अवाक ठहर गया। फिर एक जोर का ठहाका पूरे जंगल में गूंज उठा। क्योंकि अब उसे जीवन की क्षणभंगुरता और सब बना बनाया है इस सत्यता की अनुभूति हुई वह अपने आपसे बातें करने लगा। देखो जब सभी कुछ पूर्व निश्चित है फिर चिंता किस बात की और अगर बच भी गये तो ये दिन और रात रूपी चूहे तो प्रति पल इस जीवन को कुतर ही रहे हैं, यह तो पूर्व निश्चित है। अब वह भय तनाव से मुक्त सत्य ज्ञान के रहस्यमय आलोक में तैरता हुआ मुस्कुरा रहा था।
सब उसी का है लेकिन इस तथ्य को मन मानता नहीं कि मेरा कुछ भी नहीं है। परन्तु आश्चर्य फिर भी पूरी ज़िन्दगी हम इसी धोखे में जीते हैं कि हमारा कुछ तो है। यदि सब परमात्मा का ही है तो `मैं'
कहाँ टिकेगा। इसे ध्यान में रखें कि `मैं'
के अहंकार को जिन्दा रखने के लिए मेरे कि पूरी जमीन चली जाए तो ज़रा सोचिए `मैं'
का भवन कहाँ टिकेगा? इसलिए सबकुछ प्रभु को समर्पित करें।
`मैं' के कारण मेरा नहीं परन्तु 'मेरे` के कारण `मैं' है
साधारणत लोग सोचते हैं कि `मैं'
पहले आता है और `मेरा'
बाद में। मनुष्य जीवन में `मैं' और `मेरा'
दो भ्रान्ति हैं। मैं के कारण मेरा है ऐसी बात नहीं अपितु जितना बड़ा मेरे का आधार होगा, उसका विस्तार रहेगा उतना ही बड़ा `मैं' का निर्माण होता है। एक माँ का अंहकार अपने बच्चे से, अपने पति से,
अपने धन से फिर अपने परिजन से है। मान लीजिए किसी माँ का खुद का बच्चा मर जाता है तो उसका दुःख गहरे में बच्चे के कारण उतना नहीं है जितना इस बात से है कि उसका अपना एक हिस्सा उसके स्वयं के व्यक्तित्व से, उसकी माँ होने की पहचान से टूट कर बिखर गया।
उदाहरण : यदि उसका एक ही बच्चा हो उसकी मौत के साथ उसका पति भी मर जाता है, तो दुःख और भी घना हो जायेगा। कारण फिर वही है। अब उसकी दूसरी पहचान टूटने लगती है कि अब वह सुहागन भी नहीं रही। जिस प्रकार अगर कर्मेन्द्रियों को शरीर से अलग कर दिया तो मैं की पहचान खोने लगती है उसी प्रकार सम्बन्ध, धन, पद-प्रतिष्ठा इन सभी `मेरे' पर `मैं'
का अहंकार खड़ा है जो एक झूठ का आधार है मैं और मेरा का होना।
इसलिए उपनिषद कहता है `कोई' भी दूसरे को प्यार नहीं करता दूसरों द्वारा स्वयं को ही प्यार करते हैं। कोई भी दुःखी होना नहीं चाहता। यदि कोई पत्नी-पति को प्यार करती है तो अपरोक्ष रूप से पति के द्वारा अपने को ही प्यार करती है। क्योंकि उसके जीवन की समस्त सुख सुविधा का आधार वही पति है। जो कोई भी आपके इस `मैं'
का पोषण करता है वही आपका मित्र और जो इसको तोड़ने में बाधा खड़ी करता वही आपका शत्रु बन जाता है। यह वस्तु स्थिति बिल्कुल उल्टी है। `मेरे' की जमीन पहले तैयार करनी पड़ती है और तब `मैं' का भवन उस जमीन पर निर्मित करना सम्भव हो पाता है। यहीं `मैं' तो `मेरे' का समग्र जोड़ है। ध्यान देने पर इस तथ्य का आप को पता चलेगा कि आपके पास जो कुछ भी मेरा कहने लायक है,
जैसे कि मेरा मकान, मेरा पद, मेरी प्रतिष्ठा, मेरा धन इत्यादि.... इसी के बीच `मैं' निर्मित होता है। यदि इस एक-एक `मेरे'
को कोई हटाते चले जायें तो `मेरे' की पूरी जमीन चली जायेगी। अब आप ही सोचें यदि ऐसा हुआ तो `मैं' का भवन कहाँ टिकेगा? इसलिए मेरा कही जाने वाली प्रत्येक चीज़ स्वेच्छा से सबकुछ प्रभु को समर्पित करें। `मैं' भी अपने को `मेरा' कह सकूँ इसका भी कोई उपाय नहीं है। यदि `मैं' भी `मेरा'
नहीं है और सब तो ठीक ही है,
इसे ऐसे समझें।
हम बिना नाम के पैदा होते हैं। नाम तो दूसरे के लिए उपयोगी होता अपने लिए नहीं। हज़ार लोगों में कोई आपको बुलाता है तो नाम उपयोगी हो जाते है। नाम की चिटकी जो आप पर लगाई गई है वह एक सामाजिक कामचलाऊ व्यवस्था है। यदि आप इसे ही स्वयं का होना समझते हैं तो इसे क्या समझदारी कही जायेगी? उसी तरह `मैं'
को आप अपने अकेले के लिए नाम की तरह ही उपयोग करते हैं। यदि आपका नाम राम है तो बातचीत में आप अपने लिए यह कभी भी सम्बोधन नहीं करेंगे कि राम बात कर रहा है, आप कहेंगे –– मैं बात कर रहा हूँ। वास्तव में `मैं'
और `मेरा'
दोनों ही भ्रान्ति हैं। अहम् कल का हिस्सा है।
- - - - शेष भाग 10
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में
आपका और आपके परिवार का तहे दिल से स्वागत है।