नि:स्वार्थ कर्म – जीवन की सुगन्ध (Part : 10)

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(भाग - - - 9 का बाकी)

मैं के देह-अभिमान का सतत् अहसास –– बीमारी का लक्षण है

कर्म का प्रवाह स्वाभाविक है, यह आत्मा से है, परन्तु `मैं' कर रहा हूँ यह बोध आत्मा की सब से बड़ी बीमारी है। यदि आपका शरीर पूर्ण स्वस्थ हो तो शरीर का भान भूला रहता है। मान लीजिए सिर में या दाँत में दर्द है, फिर दाँत या सिर का बोध निरन्तर बना ही रहेगा। वैस आप दाँत को कभी भी सारे दिन में याद नहीं करते। वेदना बोध पैदा करती है। ठीक उसी प्रकार `मैं' का बार-बार बोध साबित करता है कि चेतना बीमार है। वास्तव में स्वाभाविक कर्म में कर्त्ता अर्थात् मैं का बोध ज़रूरी नहीं।

एक चिन्तन

–– सबकुछ अपने आप हो रहा है

–– हम कठपुतली मात्र हैं

मृत्यु और जन्म यह मानवीय जीवन के दो बुनियादी छोर हैं। आपने कभी सोचा कि आपका जन्म बिना आपकी स्वीकृति के हो जाता है। मैं जन्मा नहीं बल्कि जन्माया जाता हूँ। जन्म के लिए हमारी इच्छा भी नहीं जानी जाती है। उदाहरण से समझें –– एक मशीनी मानव रोबोर्ट को लें। आप उसको निर्मित करते हैं। आप उसे यह भी नहीं पूछते कि तुम बनना चाहते हो कि नहीं। बिना उसकी इच्छा के उसको बनाते हैं। बहुत कुछ मिलता-जुलता मनुष्य के साथ भी ऐसा ही होता है।

जन्म और मृत्यु बिना हमारी इच्छा के हो जाती है फिर उसे मेरा कहना कहाँ की समझदारी है? उसे मेरा जन्म कहने का कोई अर्थ नहीं। और मृत्यु! क्या वह आने से पहले हमें सूचित करता है कि बता, तेरा जाने का कोई इरादा है कि नहीं। यदि वह जीवन के द्वार पर दस्तक दे और मैं उसे कहूँ थोड़ा ठहर जाओ, मैं अभी चलने के लिए तैयार नहीं हूँ। क्या मृत्यु कोई विकल्प छोड़ती है? नहीं चुपचाप पीछे खड़ी हो जाती है, तो उसे मेरी मृत्यु कहना कितना भ्रामक है।

जीवन एक विराट अनुभव है। वास्तव में जीवन की वे सभी महत्त्वपूर्ण क्रियाऐं हमारे बिना किये ही सम्पन्न होती रहती है। शरीर अन्दर से अपने विराट कर्म में अति बुद्धिमानी से लगा रहता है, खून अपने आप बनता है। निद्रा अपने आप आती है, श्वास अपने आप चलती है। यदि यह आपके हाथ में दे दिया जाये तो जीवन मुश्किल में पड़ जायेगा। इच्छाएँ इतनी हैं कि हो सकता है कभी आप साँस लेना ही भूल जायें। बताईये क्या होगा? इसलिए मनुष्य के सभी महत्त्वपूर्ण कार्य परमात्मा के हाथ में है। हम तो सही अर्थों में कठपुतली मात्र हैं परन्तु फिर भी वाह-रे `मैं' का अहंकार, तेरे कारण जगत में कितनी संताप और पीड़ायें हैं।

वास्तव में प्रभु समर्पित कर्म में बुराई हो ही नहीं सकती है। बुराई तो अहंकार का हिस्सा है। यह निरअहंकारिता की भाव दशा नहीं। आपने देखा होगा कि बुरा करके कोई भी व्यक्ति अपने कर्त्तापन की घोषणा नहीं करता, परन्तु अच्छे कर्म की घोषणा तो लोग तीनों ही लोकों में ढिंढोरा पीटकर करता है कि मैं ही इसका कर्त्ता हूँ। तथ्य यह है कि जहाँ-जहाँ भी कर्त्ता उपस्थित होगा वहीं-वहीं जीवन में पाप है और उसकी गैर-मौजूदगी ही श्रेष्ठ और पुण्य कर्म है।

जिस जीवन को मैं `मेरा' नहीं कह सकता, जिन मृत्यु को मैं `मेरा' नहीं कह सकता, फिर उन दोनों के बीच जो जीवन है वह मेरा कैसे हो सकता है? जब जीवन के दो बुनियादी छोर ही आपके नहीं हैं, तो फिर बीच में अल्पकाल का बना हुआ जीवन आपका कैसे हो सकता है? ज़रा सोचो, बीच के जीवन को मेरा कहना एक धोखा नहीं तो और क्या है? हम मौत और जन्म दोनों को जान-बूझकर भूलना चाहते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि, मनुष्य अपनी दुःखद स्मृतियों को भूल जाना चाहता है। इसलिए हम जन्म और मृत्यु को भूलना चाहते हैं। क्योंकि कुछ भी मेरा नहीं है इस बोध से एक दीनता-हीनता का भाव पकड़ता है।

जो हमारे `मैं' के अहंकार को मिटा देता है। जीवन का लम्बा सेतु जिस नदी पर आप बनाते हैं यदि उसके दोनों बुनियादी आधार ही हो तो वह सेतु कैसे खड़ा रह सकेगा? इसलिए मन कहता है, जीवन और मृत्यु को भुला दो इससे एक भ्रम पैदा होता है कि बहुत कुछ हमारा है। यदि सच्चाई खोजें तो पता चलेगा कि हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है या हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं। प्रेम, घृणा, शत्रुता, मित्रता कुछ भी नहीं। प्रेम आपके बिना किये हो जाता है। कुछ भी तो आपके हाथ में नहीं है, क्रोध जब आकर चला जाता है तब आपको पता चलता है।

यदि आप प्रेम कर सकते हैं तो किसी को भी कर सकते थे। लेकिन बात बिल्कुल उल्टी है। प्रेम हो जाता है, क्योंकि आप बिल्कुल परवश है। जिनको हम प्रेम करना चाहते हैं उसको तो नहीं कर पाते हैं, लेकिन जिन्हें नहीं करना चाहते हैं उनसे हो जाता है। यह एक बिल्कुल परवश स्थिति है। लेकिन जीवन में ऐसी भ्रामकता पैदा हो जाती है। इसके कई कारण हैं ö मनुष्य के अन्दर मैं मालिक हूँ, मैं करने वाला हूँ इसका कर्त्ता बोध होने के कारण ही अहंकार पैदा हो जाता है। इस कर्त्ता होने के पीछे दो भ्रांत धारणाएँ हैं। वह यह है कि हमें लगता है कि करने में हम स्वतंत्र हैं। लेकिन गहरे में ऐसा नहीं है। जैसे एक जानवर खूँटी के सहारे बँधा है और उसके चारों ओर वह घूम रहा है, उसे ऐसा लगता है कि वह स्वतंत्र है, चाहे तो दाएं-बाएं जाए वह तो जहाँ चाहे जा सकता है। इसलिए उसे लगता है कि ``मैं'' हूँ, और धीरे-धीरे उसे ऐसा लगने लगता है कि मैं जब चाहूँ इस बंधन को तोड दूँ या यह बन्धन मेरे कल्याण के लिए है। इसी तरह मनुष्य को भी करने की मर्यादा के अन्दर उसे कर्त्ता का भान या भ्रम पैदा होता रहता है।

ज़िन्दगी के ये सारे संकल्प, सारी गहरी भावनाएँ, सारे निर्णय ऐसे मालूम पड़ते हैं जैसे किसी रहस्यमय छोर से रहें हों। ऐसे जैसे जन्म और मृत्यु। ज़रा विचारें तो क्या है जो आपका है? भूख लगती है, नींद आती है फिर टूट जाती है। साँस अपने आप आती-जाती है, शरीर की सभी महत्त्वपूर्ण आंतरिक क्रियाऐं अपने आप चल रही हैं। बचपन आता, जवानी आती, बुढ़ापा आता, आपके बिना किये सबकुछ हो रहा है। यदि आपकी जवानी होती तो आप उसे रोक लेते, लेकिन हम उस गहन भ्रमवश कहते चले जाते हैं कि मेरा बचपन, मेरी जवानी। अगर कोई पूरी ज़िन्दगी के बारे में आँखें खोलकर सोचे तो वह पायेगा कि `मैं' को कहीं भी खड़ा नहीं किया जा सकता है।

यदि निर्मल विवेक के आलोक में झाँकें तो आप पायेंगे कि हम साक्षी-द्रष्टा हो सकते हैं, कर्त्ता नहीं। कर्त्ता का भ्रम ही हमारे अहंकार का बुनियादी आधार है।

-        - - शेष भाग –– 10)

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में

आपके और आपके परिवार का तहे दिल से स्वागत है

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