नि:स्वार्थ कर्म – जीवन की सुगन्ध (Part : 11)

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(भाग 10 का बाकी)

नियति के निष्ठुर और मृदुल जीवन-चक्र

बेहद विश्व के इस रंगमंच पर जिस महालीला के हमें दर्शन होते हैं उसके सभी पात्र यवनिका के पृष्ठ भाग में पहले से ही उपस्थित रहते हैं। रंगमंच पर नियमानुसार अभिनय क्रम से जिस समय जिसकी उपस्थिति अपेक्षित होती है, उनका आगमन होता है और नियत भूमिका अदा करने के पश्चात् वे पुन यवनिका के पृष्ठ भाग में चले जाते हैं। अनन्त काल से अभिनय की अविराम यात्रा हमारे जीवन में अनेकानेक कटु-मृदु अनुभवों से हमारे प्राणों को स्पन्दित करती रहती है। घात-प्रतिघात, उत्थान-पतन, संघार-सृजन और जाने कितनी कथा यात्रा अतीत के स्मृति प्रदेश को आन्दोलन करती रहती है। सृष्टि-चक्र में होने वाली इस महालीला का निर्णायक बिन्दु कहाँ है?

साधारण जन-मन को तो इसका पता भी कहाँ हो पाता है। अपनी सजी सँवरी अरमानों की आस्था को लेकर मानव विकास-यात्रा में गतिशील होने का पुरुषार्थ तो करता रहता है, परन्तु उसके हर पदक्षेप में अदृश्य नियति की तनाव का तंत्रिका तंत्र पर गलत प्रभाव।

प्रबल शक्ति खड़ी रहती है, जो मानव की संकल्पित इच्छा को उसकी योजना के विपरीत जिधर चाहे उधर मोड़ देती है और उसे चाहते भी मुड़ना पड़ता है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि सफलता के सारे बिखरे सूत्र हाथ गये। लेकिन शीघ्र ही समय की वेगवती धारा में वे सूत्र बिखर कर ऐसे बह जाते हैं कि उसके अस्तित्व का कहीं पता भी नहीं चलता है और व्यक्ति हतप्रभ-सा, लुटा-लुटा, असहाय किनारे पर खड़ा-खड़ा उसे देखता रह जाता है।

मानव जीवन के प्रांगण में क्षण-प्रति-क्षण अनेक घटनाओं का संयोग-वियोग अनुकूल-प्रतिकूल, कटु और मृदु.... अध्यायों का निर्माण होता रहता है। प्रत्येक व्यक्ति का अंतरमन अकस्मात अघटनीय घटना को आत्मसात नहीं करना चाहता है। लेकिन चाहने से कुछ भी नहीं होता है। पलकें पूरी तरह खुल भी नहीं पाती हैं कि सपना टूट जाता है। अशुभ की बात को छोड़ दें फिर भी व्यक्ति शुभ चाहते हुए भी कितना करता है और अन्तत वह कितना पाता है यह सबका अपना-अपना व्यक्तिगत अनुभव अवश्य होगा। जिसे नकारा नहीं जा सकता।

नियति का अर्थ

उक्त स्थिति से यह स्पष्ट होता है कि लीला-चक्र में जो कुछ हुआ था, हो रहा है और होगा... वह पूर्व नियोजन है। यह लीला या ड्रामा बना बनाया है। यह हू--हू हर पाँच हज़ार वर्ष में रिपीट होता रहता है। इसके परिवर्तन में व्यक्ति स्वतत्र नहीं है। विश्व की विशाल पृष्ठ-भूमि पर जड़ और चेतन के अनेक संयोग और निमित्त के साथ जुड़कर जो घटना अतीत में घटी है, वर्तमान में घट रही है और भविष्य में घटेगी... वह सब पूर्व नियोजित है अर्थात् बना बनाया है। इसमें रत्तिभर भी अदल-बदल की कोई गुंजाइश नहीं है।

ड्रामा का यह राज त्रैकालिक सत्य है। जो होना था वही हुआ, वही हो रहा है और वही होगा। इस सत्य को प्रदर्शित करने के लिए कई शब्द हैं जैसे –– संयोग, होनी, होनहार, प्रालब्ध, भाग्य, ड्रामा या लीला इत्यादि। इसे ही हम नियति कहते हैं। अविराम लीला निरन्तर चल रही है। ज्ञान की परिपक्वता के अभाव में व्यक्ति यही कहता है कि वह हमने किया, यह मेरा परिवार है, यह मेरी सम्पदा है, इसे मैंने मारा, इसे मैंने बचाया और जाने कितने व्यर्थ के दायित्व का क्षुद्र अहम अपने पर लादे रहता है। समय की गति बड़ी मृदु और बड़ी निर्मल है, उसकी राहें कहीं सम हैं तो कहीं विषम हैं। लेकिन पूर्व नियति की प्रक्रिया में ही सबको चलना है। भूत, वर्तमान और भविष्य की सारी क्रियाएँ अदृश्य शक्तियों के हाथो संचालित होती रहती हैं। जिसे दार्शनिक चिंतन की भाषा में ड्रामा या नियति कहते हैं।

अतीत की जितनी भी क्रियाएँ सम्पादित हो गई या वर्तमान की महालीला में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रही है, या भविष्य में होने वाली क्रिया के प्रति आस्था और अनास्था का सेतु निर्मित करती है, वह सभी पूर्व नियत था और रहेगा। नियति से अलग कुछ भी नहीं है। अध्यात्म के धनी साधक सहज भाव से कर्त्ता नहीं लेकिन साक्षी भाव से घटना प्रवाह को एकरस दृष्टि से निहारता रहता है। अणु-अणु में प्रकम्पन हो रहे हैं, वह भी पूर्व नियत है। तीनों कालों में, जड़ या चेतन में जो स्थिति बनती है, जो भी परिवर्तन होता है चाहे वह अनुकूल-प्रतिकूल निमित्त एवं साधन से हो रहा है, वह होकर ही रहता है क्योंकि यह सबकुछ स्थिति की क्रमबद्ध व्यवस्था है।

चर्म-चक्षुओं से देखने पर ऐसा लगता है कि हर्ष-विषाद, हानि-लाभ, संयोग-वियोग आदि घटनाओं का घटना क्रियामान परिस्थिति के प्रभाव से हो रहा है। लेकिन ज्ञान-ज्योति से दीप्त साधक यह अनुभव करता है कि सभी पूर्व नियोजित है। हाँ, नियति के अनुरूप व्यक्ति इधर या उधर निमित्त हो सकता है। फिर प्रश्न उठता है यदि सब पूर्व नियोजित है, जो होना है वही होगा तो व्यक्ति करने में क्या स्वतत्र नहीं है, क्या यह सिद्धान्त जीवन में कर्म-योग की तेजस्विता को नष्ट नहीं कर देगा? क्या व्यक्ति इस चिन्तन से आलसी नहीं हो जायेगा? आदि आदि बातों पर आइये तटस्थ दृष्टि से इसका चिन्तन करें।

(शेष भाग 12)

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में

आपके और आपके परिवार का तहे दिल से स्वागत है।

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