नि:स्वार्थ कर्म – जीवन की सुगन्ध (Part 12 : L A S T)

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(भाग 11 का बाकी). . . . .सब पूर्व नियोजित है

होनी प्रबल है। अनेकों प्रमाण बेहद के ड्रामा में आपको देखने को मिलेंगे। अगर सर्वज्ञ परमात्मा की बात छोड़ भी दी जाये तो भी ज्योतिष शास्त्र ऐसे अनेक अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करता है कि भावी प्रबल है। प्राय लोगों का अनुभव रहा है कि उन्हें आगे होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास स्वप्नावस्था में हो जाया करता है। घटना घटित हो जाने के बाद लोग प्राय ऐसा कहते हैं इसकी सूचना मुझे पहले से ही थी। प्रश्न है यह कैसे सम्भव है?

स्वप्न में चलचित्र की तरह अन-अस्तित्व का अस्तित्व में उभर आना, कार्य और कारण की क्रमबद्ध शृंखला-सूत्र नियति ही है। योगियों के जीवन में ध्यान के क्षणों में शुद्ध अनुभूति में जो भी, जब भी भावी कार्य प्रतिबिम्बित हुआ है वह आगे चलकर निश्चित समय पर किंचित हेरफेर के बिना ही सम्पादित हो गया है। वर्तमान में नेस्त्रादमस की भविष्यवाणी का अध्ययन यह प्रमाण देता है कि 400 साल पहले ही उसने आज की होने वाली घटना को देख लिया था। यह पूर्व नियोजित नियति नहीं है तो क्या है? खैर इसके दूसरे पहलू को देखें।

इच्छा, पुरुषार्थ और प्रमाण –– यह स्थिति का अंग है। यदि कोई साधक पक्ष-मुक्त होकर जागते हुए अपने जीवन और आसपास के जीवन में घटनाओं का अध्ययन और अवलोकन करे तो उसे पता चल जायेगा कि कैसे अदृश्य रहस्यमयी नियति अपने आपमें शाश्वत सत्य सिद्धान्त है। फिर प्रश्न उठता है कि व्यक्ति क्या कर्म और पुरुषार्थ में स्वतत्र नहीं है?

एक वैर व्यक्ति अचानक छोटी-सी घटना से करुणा की मूर्ति बन जाता है। भयंकर क्रोधी, करुणा नहीं अपितु क्षमा का अवतार बन जाता है। कुख्यात हत्यारा सज्जनता की साकार प्रतिमूर्ति बन जाता है। तब नियति की सच्चाई और उसकी महिमामय गौरब का पता उस व्यक्ति को चला है। जीवन बदलना हो तो क्षण में बदल जाता है, वरना वर्षों लग जाते हैं। बिना पुरुषार्थ के इतना बड़ा परिवर्तन यह नियति नहीं तो और क्या? श्रेष्ठ और शुभ का इतना बड़ा परिवर्तन अपने आप हो जाना यह नियति नहीं तो क्या पुरुषार्थ है? इसलिए नियति सर्वोपरी है।

नियंन्ता-नियति के शीर्ष पर

सृष्टि के परिवर्तन में सबकुछ नियति ही नहीं है लेकिन नियति के भी शीर्ष पर नियन्ता बैठा है। वह परम-आत्मा जिसे हम परमपिता परमात्मा शिव कहते हैं। वही नियन्ता है। सृष्टि की नियति में वह कोई अलग से ऐसा कुछ नहीं करता है लेकिन वह नियति की पकड़ से सदा-सर्वदा मुक्त है। इस महालीला में जो संयोग से दुःख-सुख की घटनाएं होती हैं वह मनुष्यात्मा और प्रकृति की बनी बनाई एक क्रमबद्ध  शृंखला है। लेकिन नियन्ता नियति की सभी गतिविधि को देखते और जानते हैं परन्तु उसके फल और परिणाम से सदा मुक्त अपना परम विशिष्ट स्थान रखते हैं। वह इस सृष्टि में हो रही लीला में बहुत काल तक मनुष्य के सुख शान्तिपूर्ण जीवन की नियति बनाने के निमित्त अपना पार्ट बजाने आते हैं।

उनका यह कहना कि मैं भी ड्रामा के मीठे बन्धन में बँधा हूँ यह उनकी परम निर्माणता है और उनका यह कहना मनुष्यात्माओं के साथ सर्व-सम्बन्ध जोडकर उन्हें सर्व प्राप्ति करने में सहायक बनना है। अन्यथा वह तो हमारी तरह कर्म का फल नहीं लेते। पार्ट या नियति के अधीन शरीर से कभी बाँधते नहीं हैं। जब चाहे आते हैं, जब चाहे जाते हैं। परम स्वतत्र हैं। जबकि कोई भी व्यक्ति नियति से स्वतत्र नहीं है। इस स्थान और समय की सीमा से पार जहाँ नियति की कोई पग-ध्वनि भी सुनाई नहीं देती, उस शान्तिधाम में वह सदा मुक्त स्थिति में रहता है।

नियति के कल्याण और अकल्याण से दूर वह सदा कल्याणकारी नियति का पाट बजाता है और आधा कल्प तक सृष्टि को कल्याण की नियति, सुख की नियति बनाने का पार्ट सदा बंधन-मुक्त होकर बनाने के निमित्त बनता है। इसलिए भी हम उसे नियन्ता कहते हैं। जगत-नियन्ता परमपिता शिव ने हमें बताया है कि हे आत्माओ, प्रत्येक मनुष्यात्मा के लिए उसके पूरे जन्मों का तीन चौथाई भाग उसके सुख की ही नियति है। यह ड्रामा अल्पज्ञता के कारण सुख और दुःख का अनुभव कराता है लेकिन सत्य तो यही है कि यह अन्तत कल्याणकारी नियति से जुड़ा है।

नियति के चिन्तन से लाभ

एकांकी रूप से वर्तमान मे हम नियति तथा नियन्ता दोनों के चिन्तन से जुड़े हैं। नियति की समझ व्यक्ति को आलसी नहीं, परन्तु कर्मशील बनाती है। नियति का चिन्तन व्यक्ति को सभी प्रकार की दुश्चिन्ताओं से मुक्त कर देता है। उसके मन में कभी भी किसी के प्रति ईर्ष्या या नफरत का भाव नहीं पनपता। नियति के चिन्तन से व्यक्ति आलसी नहीं बनता लेकिन आलस्य, व्यक्ति की नियति है, कर्मशील होना भी व्यक्ति की नियति है।

नियति और नियन्ता का यह संतुलित चिंतन मानव-मन को निर्भय और निर्द्वन्द बनाता है। नियति का भाव या यह सत्य चिन्तन साधक को समभाव के उच्चतम शिखर पर चढ़ा देता है। चिन्तन की इस पृष्ठ-भूमि में मनुष्यात्मा में, दिव्यतम जीवन की उपलब्धियों की वह प्रज्ञा-रश्मियाँ प्रस्फुटित होती है, जो उन्हें शुभाशुभ की परिधियों से बाहर ले जाती हैं। नियति का यह चिन्तन साधक को राग-द्वेष की व्याकुलता से विचलित नहीं करता, अपितु विघ्न बाधाओं की जितनी भी पर्वत श्रेणियां उपस्थित होती हैं वह विराट समत्व भाव में समाहित हो जाती हैं।

यद्यपि नियति और नियन्ता का यह चिन्तन मानव-मन को अनेक कुण्ठाओं, द्वन्द और तनाव से मुक्त कर `मैं' के अहम भाव या कर्त्ता भाव त्यागने का पावन सन्देश देता है। होनी ही होगी, अनहोनी कभी हुई है, कभी होगी। इसलिए मनुष्य को शान्तचित्त से कर्म करना चाहिए। यदि उसे समय पर होना है तो कदाचित होकर रहेगा अन्यथा नहीं। अनुकूल ओर प्रतिकूल दोनों ही फल को नियन्ता को समर्पित कर देना चाहिए। इसलिए नियतिवाद का सिद्धान्त मानव-मन को निष्कलुष ज्ञान की तेजोमय ज्ञान की आभा से हर क्षण दीप्त रहने का मंगल-संदेश देता है।

यह चिन्तन वह प्रशान्त महासागर है जहाँ विकारों का हाहाकार करता तूफान शान्त हो जाता है और एक परम शान्ति और स्नेहयुक्त स्निग्ध वातावरण की मन्द सुगन्ध में आत्मा लीन हो जाती है। नियति और नियन्ता के इस रहस्य को सकारात्मक पहलूओं से जानकर एकरस स्थिति को उपलब्ध कर लेना यह भी नियति है। आप समझ सकते हैं तो समझें अन्यथा यह भी आपकी नियति है।

यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी है कि फलाकांक्षा रहित कर्म बिल्कुल सम्भव है, परन्तु तब, सब जीवन और कर्म के प्रति हमारी समझ गहरी हो, जैसा कि इस अध्याय में इसका विवेचन किया गया है।

वास्तव में `मैं' मालिक भी है, कर्त्ता भी है और साक्षी-द्रष्टा भी है। इस अवस्था में वह पाप मुक्त, दुःख मुक्त और आनन्दपूर्ण है। लेकिन तब जब `मैं' अपने उच्च `स्व' अर्थात् अपने ज्योति बिन्दु आत्मिक-स्वरूप में है। परन्तु जब `मैं' निम्न `स्व' अर्थात् देह, नाम, इद्रियों, प्रतिष्ठा, देहभान से जुड़ा है तब उसका मालिक और कर्त्ता भाव अज्ञान और अंहकार से जुड़ा होता है, जो समस्त दुःखों, पापों और दासता की जड़ है।

यदि आप अंहकार और कर्त्ता भाव से मुक्ति चाहते हैं, जो समस्त दुःखों, पापों और दासता की जड़ है। सच्चे अर्थों में मालिक और कर्त्ता बनना चाहते हैं तो अपने आत्म स्वरूप को जाने और अनुभव करें। (समाप्त)

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में आपका और आपके परिवार का तहे दिल से स्वागत है. . . स्वागत है . . . स्वागत है . . .


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